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DNA TV SHOW: क्या है बिहार में जातिगत जनगणना का मकसद? यहां जानिए पूरी डिटेल

DNA TV SHOW: बिहार देश का पहला ऐसा राज्य बन चुका है, जिसने पहली बार जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी किए हैं. आइए जानते हैं कि सीएम नीतीश सहित और लालू प्रसाद क्यों जातिगत जनगणना के पक्ष में क्यों हैं?

DNA TV SHOW: क्या है बिहार में जातिगत जनगणना का मकसद? यहां जानिए पूरी डिटेल

DNA TV Show

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डीएनए हिंदी: देश का संविधान जब लिखा जा रहा था तो उसमें नागरिकों को दिए जाने वाले कुछ मूल अधिकारों के बारे में बताया गया. ये अधिकार समान रूप से सभी नागरिकों को दिए गए थे. संविधान में मूल अधिकारों का जिक्र अनुच्छेद 14 से लेकर अनुच्छेद 32 तक हैं. इसमें सबसे पहले जिस अधिकार का जिक्र है, वो है समानता का अधिकार. जिसका अर्थ है कि देश के हर नागरिकों को एक समान समझे जाने का अधिकार. आइए आज डीएनए टीवी शो में जानते हैं कि बिहार की जातिगत जनगणना का मकसद क्या है? 

संविधान के अनुच्छेद 15 में समानता के अधिकार से जुड़े 4 बिंदु बताए गए हैं

1) किसी भी नागरिक के साथ जाति, धर्म, लिंग, जन्मस्थान और वंश के आधार पर भेदभाव नहीं होगा.

2) जाति, धर्म, लिंग, जन्म स्थान या वंश के आधार पर किसी जगह पर जाने से नहीं रोका जाएगा.

3) महिलाओं और बच्चों को अपवाद मानते हुए, विशेष उपाय किए जा सकते हैं.

4) राज्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े और SC,ST,OBC के लिए विशेष नियम बना सकते हैं.

समानता के अधिकार में हैं कुछ अपवाद 

हमारे संविधान में देश के नागरिकों को मूल अधिकार के तौर पर समानता का जो अधिकार दिया गया, उसमें कुछ अपवाद जोड़ दिए गए. स्वतंत्रता के 76 वर्ष के इतिहास में अनुच्छेद 15 के इसी अपवाद का लाभ, राजनीतिक पार्टियां उठाती आई हैं. अपने भव्य मंचों से अक्सर ये कहा जाता रहा है कि देश को अगर आगे बढ़ाना है तो जातिगत और दलगत राजनीति से ऊपर उठकर, विकास कार्यों पर बात होनी चाहिए. राजनीतिक पार्टियां जब अपनी चुनावी रणनीति बनाती हैं तो मतदाताओं को पहले धर्मों में बांटकर और फिर उसके बाद जातियों में बांटकर, रणनीति तैयार करती हैं. किसी जाति को क्या वादा करना है, इसका ख्याल भी रखा जाता है.

जब नीतीश कुमार ने पकड़ी जातिगत नब्ज 

 नीतीश कुमार वर्ष 2005 में जब बिहार की सत्ता पर काबिज हुए तो उस वक्त लालू-राबड़ी की राजनीति से तंग आ चुकी जनता ने जंगल राज के खिलाफ नीतीश का साथ दिया था. इस जीत के बाद नीतीश कुमार जानते थे कि अगर बिहार में लंबे समय तक राज करना है तो जंगलराज वाले आरोप बहुत ज्यादा समय तक लालू यादव परिवार को सत्ता से दूर नहीं रख पाएंगे. यही वजह थी कि वर्ष 2005 से 2010 के शासनकाल के दौरान नीतीश कुमार ने बिहार की जातिगत नब्ज को पकड़ा. इस दौरान उन्होंने जातियों में भी दो नए वर्गों को निर्धारित कर दिया.  एक महादलित और दूसरा अतिपिछड़ा वर्ग था. नीतीश कुमार की पार्टी JDU ने इसी अतिपिछड़ा वर्ग को अपना वोटबैंक बनाया, जिससे वो लंबे समय तक सत्ता में बने रहे.  नीतीश कुमार ने जो दांव चला था, उसका असली असर अब शुरू होगा. 

 जातिगत जनगणना कराने वाला पहला राज्य बना बिहार 

बिहार देश का पहला ऐसा राज्य बन चुका है, जिसने पहली बार जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी किए हैं.  इस जनगणना में हर उस जाति की जनसंख्या और राज्य की कुल जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी का जिक्र किया गया है. हालांकि इस जनगणना के विषय में ये भी कहा जा रहा था कि इसमें आर्थिक रूप से कमजोर और संपन्न जातियों का भी जिक्र होगा लेकिन फिलहाल उसके बारे में जानकारी नहीं दी गई है. बिहार की जाति आधारित जनगणना की रिपोर्ट देश के सामने रखी गई है. इसमें बताया गया है कि बिहार में...

बिहार में कुल जनसंख्या 13 करोड़ 7 लाख 25 हजार 310 है.

जिसमें सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 27.12 प्रतिशत

अनुसूचित जाति की हिस्सेदारी 19.65 प्रतिशत

अनुसूचित जनजाति की हिस्सेदारी 1.68 प्रतिशत

पिछड़ा वर्ग की हिस्सेदारी 27.12 प्रतिशत

अति पिछड़ा वर्ग की हिस्सेदारी 36.01 प्रतिशत है

जानिए बिहार में जातिगत जनगणना का असली मकसद

बिहार में जातिगत जनगणना का जो असली मकसद है, उसे देखते हुए ये कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार ने जो दांव करीब 15 साल पहले चला था. वो अगले चुनाव में उनके बहुत काम आने वाला है. जिसके वजह यह है कि बिहार में नीतीश कुमार के शासनकाल में बनाये गये, अति-पिछड़ा वर्ग की हिस्सेदारी, अन्य सभी वर्गों से ज्यादा है. यही वजह है कि बिहार की सत्ता में शामिल नेता खुश हैं और उनके मुताबिक जातिगत जनगणना का कदम, ऐतिहासिक रहा है.  जिस अतिपिछड़ा वर्ग के दम पर नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में टिके हुए हैं, उसमें प्रदेश की 100 से ज्यादा जातियां शामिल हैं. नीतीश ने लोहार, कुम्हार, बढ़ई, कहार, सोनार समेत 114 जातियों को इसमें शामिल रखा था. एक ही वर्ग में इतनी सारी जातियों का आना, एकमुश्त वोट पाने का जरिया है.  ये राजनेता जानते हैं क़ि वर्ष 2024 के चुनाव में ये अतिपिछड़ा वर्ग ही, बड़ा गेमचेंजर साबित हो सकता है. अब सवाल ये है कि जातिगत जनगणना की जरूरत क्यों पड़ी. 

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क्यों पड़ी जातिगत जनगणना की जरूरत

जातिगत जनगणना की इस रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में हिंदुओं की संख्या 81.99 प्रतिशत है. वहीं बिहार की मुस्लिम आबादी 17.7 प्रतिशत है. इसके अलावा अन्य धर्मों की कुल आबादी 1 प्रतिशत से भी कम हैं. आने वाले चुनावों के लिए केंद्र की सत्ता में काबिज बीजेपी पर हिंदुत्व का एजेंडा चलाने के आरोप लगते हैं. बिहार की जातिगत जनगणना को बीजेपी के इसी हिंदुत्व की काट माना जा रहा है. दरअसल, इस जातिगत जनगणना को आधार बनाकर अब पूरी देश में जातिगत जनगणना की बात कही जा रही है. यही नहीं, वर्ष 2011 की पिछली रिपोर्ट में जातियों की जनगणना की गई थी लेकिन उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई थी. उस रिपोर्ट को भी सार्वजनिक करने की मांग की जा रही है. जिस तरह से I.N.D.I.A गठबंधन के पास Uniform Civil Code और राम मंदिर उद्घाटन जैसे कदमों की कोई काट नहीं है, उसी तरह से अब बीजेपी के पास जातिगत जनगणना का विरोध मुश्किल है. हांलांकि बीजेपी नेता, इस रिपोर्ट को आधा अधूरा और जातियों के बीच फूट डालने की रणनीति बता रहे हैं. 

जातिगत जनगणना के पक्ष में नहीं है बीजेपी और कांग्रेस 

राजनीतिक रूप से देखा जाए तो बीजेपी और कांग्रेस, जातिगत जनगणना के पक्ष में नहीं रहे हैं. जातिगत जनगणना का मुद्दा 1990 के दशक में सबसे ज्यादा गर्माया था.  मंडल कमीशन की रिपोर्ट में ये कहा गया था कि जातिगत जनगणना जरूरी है और उसके आधार पर पिछड़े वर्ग के लोगों की गिनती करके, उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाना चाहिए.  वर्ष 1996 में United Front Government के लिए जातिगत जनगणना, एक प्राथमिकता थी. देवगौड़ा सरकार इस बात पर मान गई थी कि वर्ष 2001 की जनगणना में जातियों की गणना भी की जाएगी. हालांकि ये योजना कामयाब नहीं रही क्योंकि सरकार बदल गई थी. 1998 में NDA सत्ता में आ गई थी. इसके बाद वर्ष 2004 में UPA की मनमोहन सरकार सत्ता में आई लेकिन जातिगत जनगणना का मुद्दा दब गया.  वर्ष 2011 की जनगणना में भी जाति आधारित जनगणना किए जाने को लेकर कोई पहल नहीं की गई थी.  हालांकि समाजिक और आर्थिक हालातों का आधार बनाते हुए 2011 की जनगणना में जातियों को शामिल किया गया था लेकिन इसको अधूरा माना गया. इस जनगणना में जातियों की स्थिति को लेकर रिपोर्ट, सार्वजनिक नहीं की गई.  इससे पता चलता है कि बीजेपी और कांग्रेस जातिगत जनगणना के पक्षधर कभी नहीं रहे हैं. 

जातिगत जनगणना के पक्ष में क्यों नहीं है बीजेपी और कांग्रेस 

जातिगत जनगणना की वजह से राजनीतिक खतरा पैदा हो सकता है. इससे जातियों के बीच प्रतिनिधित्व की मांग बढ़ेगी। इसमें राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी शामिल है. 

जातिगत जनगणना से जातियों के बीच मतभेद पैदा हो सकते हैं. विशेष जाति को लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं से अन्य जातियों में नाराजगी पैदा हो सकती है. 

 विपक्ष के मुताबिक बीजेपी के लिए हिंदुत्व का एजेंडा इससे खतरे में पड़ सकता है. हिंदु समुदाय में आपस में मतभेद होंगे,तो राजनीतिक परेशानियां खड़ी हो सकती है. 

जातिगत जनगणना के बाद आरक्षण बढ़ाने की मांग उठ सकती है, जिससे सवर्ण वोट बैंक खतरे में पड़ जाएगा. 

 बिहार की जातिगत जनगणना की रिपोर्ट सामने आने के बाद कांग्रेस, इसके पक्ष में नजर आ रही है.  ये आज के राजनीतिक हालात भी हो सकते हैं, जिसके तहत वो भी जातिगत जनगणना के पक्ष में दिख रही है.नीतीश कुमार हो, लालू प्रसाद यादव हों या फिर राहुल गांधी, ये सभी लोग जाति आधारित जनगणना के पक्षधर हैं. सभी ने एक सुर में ये बात मानी है कि जाति आधारित जनगणना के बाद, 'जितनी आबादी उनता हक' के एजेंडे पर वो आगे बढ़ेंगे. यानी जिस जाति के लोगों की आबादी जितनी होगी, उनको उतना ज्यादा प्रतिनिधित्व, सरकारी लाभ दिया जाएगा. इस तरह से देखा जाए तो जाति आधारित बहुसंख्यकों को राज्य में ज्यादा लाभ पहुंचाया जाएगा.  

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क्या सही है जातिगत जनगणना

जातिगत जनगणना देश में आजादी से पहले की जाती थी लेकिन आजादी के बाद ये व्यवस्था खत्म कर दी गई. वर्ष 1881 में देश में पहली बार अंग्रेजों ने जनगणना करवाई थी, इसमें जातियों की गिनती हुई थी. वर्ष 1931 तक ऐसा ही चलता रहा, लेकिन वर्ष 1941 में हुई जातिगत जनणना की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई. आजादी के बाद संविधान निर्माताओं ने जातिगत जनगणना ना कराने फैसला लिया, वो इसे विभाजनकारी मानते थे. आजादी के बाद वर्ष 1951 में जनगणना हुई, इसमें केवल SC-ST जातियों की गिनती की गई.  ये गिनती इसलिए हुई क्योंकि आरक्षण दिए जाने की संवैधानिक बाध्यता थी. 80 के दशक में जातियों के आधार पर कई क्षेत्रीय पार्टियां बनीं.  इन पार्टियों ने सरकारी शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण का अभियान चलाया. BSP नेता कांशीराम ने जातियों की संख्या के आधार पर यूपी में आरक्षण की मांग सबसे पहले की थी. 1989 में इसी मुद्दे को लेकर मंडल कमीशन बनाया गया. इन्होंने पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिए जाने के मामले में OBC को आरक्षण देने की सिफारिश की. वर्ष 1990 में वीपी सिंह सरकार ने इसे लागू किया जिसके बाद सामान्य श्रेणी के छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किए. वर्ष 2010 में लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं ने मनमोहन सिंह पर जातिगत जनगणना का दबाव बनाया. वर्ष 2011 में सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना कराने की फैसला हुआ. वर्ष 2013 में ये जनगणना पूरी हुई, लेकिन इसका डेटा सार्वजनिक नहीं किया गया. देश में आर्थिक रूप से पिछड़ों को प्रतिनिधित्व दिए जाने की बात कही जाती रही है.  कोई भी नेता, इस बात से इनकार नहीं कर सकता है कि गरीब किसी भी जाति का हो, उसे वंचित माना जाना चाहिए लेकिन सच्चाई ये है कि ऐतिहासिक तौर पर लगभग हर राजनीतिक पार्टी, टिकटों के बंटवारे को लेकर, वोटर्स की गितनी तक को जातियों और धर्मों में बांटकर, रणनीति तैयार करती हैं.  

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