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शेखर जोशी: अलविदा कोसी के घटवार

शेखर जोशी हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार थे. 90 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया. पढ़ें असिस्टेंट प्रोफेसर पल्लव का यह संस्मरण.

शेखर जोशी: अलविदा कोसी के घटवार

शेखर जोशी.

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पल्लव.

शेखर जोशी नहीं रहे. वे नब्बे बरस के थे और पिछले हफ्ते दस दिन से अस्पताल में भर्ती थे. मूलत: उत्तराखंड के निवासी शेखर जोशी का जीवन इलाहाबाद में बीता जहां का उनका पता 100 लूकरगंज जैसे हिंदी के कहानी प्रेमियों के मानस में एक स्थाई शब्द युग्म की तरह अंकित हो गया था. पत्नी के निधन के बाद वे दिल्ली चले आए और पिछले कुछ सालों से दिल्ली ही उनका स्थाई निवास था. सुनने और देखने की बाधाओं के कारण वे दिल्ली में शायद ही किसी सार्वजनिक आयोजन में गए. अब जबकि वे नहीं हैं, उनका न होना बड़ी अनुपस्थिति है. संभवत: वे नयी कहानी आंदोलन के अंतिम कथाकार थे.

बहुत कम लेखकों को यह सौभाग्य मिलता है कि उनकी कलम से कोई ऐसी रचना निकल जाए जो उनकी स्थाई पहचान बन जाए.  शेखर जोशी को यह सौभाग्य मिला था. उनकी कहानी 'कोसी का घटवार' ऐसी कहानी है जिसके बिना हिंदी की श्रेष्ठ कहानियों का कोई संकलन बन ही नहीं सकता. एक रिटायर्ड फ़ौजी के प्रेम की स्मृतियों से बनी यह कहानी अपनी संवेदना में अपूर्व है. जीवन में रिक्तता का ऐसा गहरा बोध कम रचनाओं में उभरकर आता है. 

कहानी मामूली लोगों के जीवन को आधार बनाती है और इसकी प्रेरणा अत्यन्त गैर मामूली है. ‘प्रेमा पुमर्था महान’, प्रेम स्वयं ही पुरुषार्थ है, प्रेम के लिए कोई उद्देश्य खोजना नासमझी है. शेखर जोशी इस प्रेम की शाश्वतता को फिर आकार देते हैं. कहानी को याद कीजिए जब ‘लछमा उस ओर पीठ किए बैठी थी. उसने (गुसांई ने) जल्दी-जल्दी अपने निजी आटे के टीन से दो-ढाई सेर के करीब आटा निकाल कर लछमा के आटे में मिला दिया और सन्तोष की एक सांस ले कर वह हाथ झाड़ता हुआ बाहर आ कर बाँध की ओर देखने लगा.’ कहना नहीं है कुछ भी. कह दिया तो इंकार तय है क्योंकि लछमाएं जिद्दी जो होती हैं. 

कहानी में एक मार्मिक प्रसंग और भी है. गुसांई ने आटा गूंथ कर रोटी बनाने की तैयारी कर ली थी, तभी लछमा ने रोटी पकाने देने की इच्छा ऐसे स्वर में प्रकट की कि गुसांई ना न कह सका. गुसांई देखता रहा और जब चाय के साथ एक रोटी खायी तो कह गया—‘लोग ठीक ही कहते हैं, औरत के हाथ की बनी रोटियों में स्वाद ही दूसरा होता है.’ यह वह गुसांई है जो लछमा की चाह में जीवन भर अकेला रहा और रहेगा. विडम्बना तो देखिए कि लछमा के पिता ने जिस भरे पूरे घर में उसे ब्याहा था वह न रहा और भरे पूरे घर वाले भी उसके सगे न रहे. जिसकी जान परदेश में बन्दूक की नोक पर थी वह फिर आ गया. खाप पंचायते कहाँ नहीं हैं? झगड़ा केवल गोत्र का ही नहीं होता.

नई कहानी आंदोलन की प्रचलित त्रयी से अलग जोशी असल में भीष्म साहनी और अमरकांत के साथ  ऐसी त्रयी बनाते थे जिनकी कहानियों में भारतीय जन जीवन के स्वप्न और आकांक्षाएं बोलते हैं. इन कहानीकारों के यहां कहानी की पच्चीकारी नहीं जीवन की उधेड़बुन मिलती है. बाद में जोशी जनवादी लेखक संघ में भी रहे जिसे उनके वैचारिक प्रतिबद्धताओं का एक पक्ष मानना चाहिए.नयी कहानी के बाद के परिदृश्य में भी वे सक्रिय रहे और जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने कविता तथा कथेतर लेखन भी किया. 

आत्मकथात्मक कृति 'मेरा ओलियागांव' में आयु के आठवें दशक में उन्होंने अपने बचपन के दिनों और जगहों को याद किया है. 'मेरा ओलियागांव' उनकी आत्मकथा नहीं किन्तु यहां उनके बचपन का लंबा समय मौजूद है जिसमें औपनिवेशिक दौर के पहाड़ी समाज के चित्र और उनका अपना जीवन संघर्ष है. जोशी अट्ठाइस अध्यायों में विभक्त इस कृति में अपने बचपन के दोस्तों, घर-परिवार, रीति-रिवाज, खेती-बाड़ी, पशु-पक्षी और गांव के जीवन की पुनर्रचना करते हैं. अपनी प्रकृति में यह पुस्तक अक्सर संस्मरणों के निकट जान पड़ती है लेकिन लेखक के लिए मुख्य चिंता रूप की नहीं है. किताब के छोटे छोटे अध्याय जोशी के बचपन और गांवों में अभावों के बावजूद जीवन की मस्ती के अनेक प्रसंग मिलते हैं. 


ख़ास बात यही है कि व्यतीत के मोहक चित्रों में भी लेखक की दृष्टि द्वंद्वात्मक है.  वे पंडितों के भोजन प्रेम का वृत्तांत सुनाते हैं तो वर्तमान दुर्दशा के तार्किक कारणों की खोज भी करते हैं. सामाजिक भेदभावों और जाति-वर्ग जनित अन्यायों की अनदेखी  यहां नहीं है.  एक जगह उन्होंने लिखा है, 'हाथ की कारीगरी को अछूत कर्म मानने का नतीजा यह हुआ कि परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ने पर जमीन के बंटवारे और दूसरे के श्रम पर निर्भरता के कारण सवर्ण लोग गरीबी की ओर बढ़ते गए और नौकरी की तलाश में गांवों से विस्थापित होते गए.' जिस भरे पूरे गांव-घर के चित्र से पुस्तक शुरू हुई है अंत में वह दृश्य नहीं है लेकिन जो है वह आशा का उजाला फैलाने वाला है.


उनके प्रमुख कहानी संग्रह कोसी का घटवार(1958), साथ के लोग (1978), हलवाहा (1981), नौरंगी बीमार है (1990), मेरा पहाड़ (1989),  डांगरी वाले(1994) और बच्चे का सपना (2004) है.  उनके लिखे संस्मरण 'एक पेड़ की याद;' पुस्तक में संगृहीत हैं. उनकी सम्पूर्ण कहानियों का संकलन प्रेस में चला गया था और शीघ्र ही आने को था. काश वे इसे देख पाते.

(पल्लव दिल्ली विश्वविद्याल के हिंदू कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. हिंदी पढ़ाते हैं.)

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