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Pran: मीर का दीवान पढ़ते प्राण साहब की इस फोटो में छिपा है उनके व्यक्तित्व का राज़

1940 में भारतीय फिल्मों को अपना सबसे आकर्षक खलनायक हासिल हुआ जिसने अगले साठ साल तक कई यादगार रोल निभाए.

Pran: मीर का दीवान पढ़ते प्राण साहब की इस फोटो में छिपा है उनके व्यक्तित्व का राज़
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अशोक पांडे

12 फरवरी 1920 को दिल्ली में लाला केवल किशन सिकन्द के सम्पन्न घर में जन्मे प्राण किशन का बचपन अनेक जगहों में बीता. लालाजी सिविल इंजीनियर थे और पुलों और सड़कों के सरकारी ठेकों के सिलसिले में एक से दूसरी जगह बसते रहते थे. घर का पता दिल्ली से कपूरथला, कपूरथला से उन्नाव, उन्नाव से मेरठ, मेरठ से देहरादून और फिर देहरादून से रामपुर बदलता रहा. पतों की इस अदला-बदली के दौरान प्राण रामपुर के रज़ा हाईस्कूल से मैट्रिक कर सकने में कामयाब हुए.

परिवार फिर दिल्ली पहुंचा. प्राण प्रोफेशनल फोटोग्राफर बनने की नीयत से कनॉट प्लेस में स्थित अपने पिता के दोस्त की ए. दास एंड कम्पनी में बतौर अप्रेन्टिस काम करने लगे. दिल्ली में रहने वाले कम्पनी के अंग्रेज़ ग्राहक गर्मियों में शिमला चले जाते थे लिहाज़ा कम्पनी ने वहां अपना अस्थाई दफ़्तर खोल रखा था. शिमले में ऐसा इत्तेफ़ाक बैठा कि प्राण ने वहां की स्थानीय रामलीला में अपने एक्टिंग करियर का आगाज़ किया. सपाट, चिकने चहरे के चलते उन्हें सीता का रोल मिला. यह भी इत्तेफाक था कि उसी रामलीला में मदन पुरी राम का किरदार निभाया करते थे.    

ए. दास एंड कम्पनी का काम बढ़ा तो लाहौर में ब्रांच खोलने की जरूरत हुई. प्राण को वहां का काम सम्हालने के लिए भेजा गया. प्राण उन्नीस साल के थे. महीने में दो सौ रुपये कमाते थे. शौक़ीन मिजाज़ थे सो दोस्तों के साथ लाहौर के हीरा मंडी की रंगीन गलियों के फेरे लगते रहते थे. उम्दा सौन्दर्यबोध के स्वामी प्राण के भीतर वह चीज नैसर्गिक रूप से विकसित हो चुकी थी जिसे बाद के वर्षों में कामिनी कौशल उनका अद्वितीय स्टाइल बताया करती थीं. उन दिनों लाहौर का सम्पन्न आदमी अपने तांगों से पहचाना जाता था. खूबसूरत प्राण के सुरुचिपूर्ण कपड़ों और तांगे के बारे में उनके दोस्त रहे सआदत हसन मंटो ने भी लिखा है.   

ऐसे में एक दिन लाहौर के सबसे बड़े फिल्म प्रोडक्शन हाउस पंचोली स्टूडियो के कास्टिंग डायरेक्टर और लेखक वली मोहम्मद वली ने प्राण को हीरामंडी के सबसे विख्यात पनवाड़ी रामलुभाया के खोखे पर पान बनवाते देखा. उनके डीलडौल और लहजे से प्रभावित होकर वली ने उन्हें अपनी नई फिल्म में काम करने का प्रस्ताव दिया. इस तरह 1940 में भारतीय फिल्मों को अपना सबसे आकर्षक खलनायक हासिल हुआ जिसने अगले साठ साल तक कई यादगार रोल निभाने थे. 

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उत्तर भारत के अलग-अलग नगरों में अपना बचपन बिता चुकने के चलते उन्हें तरह-तरह की सामाजिक-भौगोलिक और आर्थिक पृष्ठभूमियों से निकले अनगिनत तरह के लोगों को नज़दीक से देखने का मौका मिला था. अपने निभाये चरित्रों के स्टाइलाइजेशन में इस अनुभव ने खूब मदद की.

साफ़-सुथरी आवाज़ और त्रुटिहीन उच्चारण प्राण की अदाकारी का सबसे आकर्षक पहलू था. ख़ास तौर पर जिस कुशलता वह उर्दू के शब्दों को बोलते थे उसके लिए उनकी स्कूली शिक्षा ज़िम्मेदार थी जिसमें मैट्रिक तक अनिवार्य विषय के रूप में उर्दू पढ़ाई जाती थी. उन्हीं दिनों प्राण के भीतर उर्दू शायरी के प्रति गहरा लगाव पैदा हुआ जो उनके जीवन के आखिरी दिनों तक बना और संवरता रहा.

बहुत कम लोग जानते हैं कि प्राण को सैकड़ों शेर और गज़लें ज़बानी याद याद रहते थे. बात-बात पर शेर सुनाने वाले प्राण महफ़िलों की जान हुआ करते थे. मीर तकी मीर और मिर्ज़ा ग़ालिब के अलावा उनके सबसे प्रिय शायरों में असग़र गोंडवी, फैज़ अहमद फैज़, फ़िराक़ गोरखपुरी और जोश मलीहाबादी शुमार थे. इसके अलावा उन्हें अमृता प्रीतम की भी अनेक पंजाबी नज्में रटी रहती थीं.

स्वाभाव की सादगी और लहज़े की सुरुचि प्राण किशन सिकन्द को कविता के स्वाध्याय से हासिल हुई चीज़ें थीं. लिहाज़ा इस तस्वीर में प्राण साहब कोई रोल नहीं कर रहे. वे थे ही ऐसे.

एक बेहद दिलचस्प बात बताता हूं. पुरानी दिल्ली की जिस गली सौदागरान में उनका जन्म हुआ था वह उसी बल्लीमारान मोहल्ले में मौजूद है जिसमें उर्दू कविता के कुलदेवता मिर्ज़ा ग़ालिब पैदा हुए थे.

कुछ तो असर उसका भी आना था.

Ashok Pandey

(अशोक पांडे लेखक और अनुवादक हैं. यह लेख उनकी फ़ेसबुक वॉल से यहां साभार प्रकाशित किया जा रहा है.)

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