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Schizophrenia को केंद्र में रखकर लिखा गया शानदार उपन्यास ‘स्वप्नपाश’

World Schizophrenia Day पर पढ़िए मनीषा कुलश्रेष्ठ के उपन्यास स्वप्नपाश का यह हिस्सा. यह कहानी गुलनाज़ फरीबा की है. गुलनाज़ जो Schizophrenia की शिकार है.

Schizophrenia को केंद्र में रखकर लिखा गया शानदार उपन्यास ‘स्वप्नपाश’
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  • मनीषा कुलश्रेष्ठ

तुम अब भी एबनॉर्मली क्यों एक्ट करती हो? माना जब बच्ची थी तुमने फैंटेसी और कॉमिक्स के करैक्टर्स को दोस्त मान लिया. लेकिन अब तुम तेरह साल की हो, तुम जानती हो कॉमिक्स - कॉमिक्स हैं..अब किस से बातें करती हो? “मम्मी खीजती थीं, जब ये चले आते थे मेरे बड़ेपन में शोर मचाते, मेरे भरे - भरे अंगों पर हैरान होते हुए. वे पूछते हैं.... मैं मम्मी के सामने उन्हें भगाती भी हूं – “ श्श,शटअप, गेटलॉस्ट! “

वे मुझे कहतीं, अब बंद करो कार्टून - देखना, कॉमिक्स पढ़ना. तब मैं चुप हो जाती थी कि जाने दो यह मेरा अपना मसला है. शायद हर बड़े होते बच्चे को इस मुश्किल से गुज़रना होता होगा. सब अपनी बचपन की दुनिया को बड़ी दुनिया में घुसने से पहले बाहर ही डंप करने में सफल रहते होंगे. मेरी तरह दुनिया के भीतर एक खोई दुनिया में फ़ंसे रह जाना कितनों के साथ होता होगा? यह ऎसा था कि कोई बीते समय में आधा पीछे छूट जाए और् आधा आगे...मसलन कि किसी लिफ़्ट के गेट में आधा शरीर बाहर हो, आधा भीतर छूट जाए और लिफ़्ट चल पड़े.  कभी न आने वाले बीते समय में, किसी खोए हुए स्वर्ग़ में आने वाले समय के सपने टंगे रह जाएं. सच में यह बहुत घातक है.

चलो हम अपनी कहानी पर वापस लौटें, इस तरह खोई दुनिया और सपनों की बात करने का कोई औचित्य नहीं अब. असली बात कि मुझे एन उस पल में वह खो गई सलेटी दुनिया मिल गई थी. बड़े होकर... वह फिर मेरे सामने थी. मेरा मन अपने दूसरे गुप्त संसार में जा दुबका था और सामने आती इस चमकीली दुनिया को नकार रहा था. सपने, इच्छाएं रूप बदल रहे थे. मेरे बचपन की उत्पाती दुनिया टूट रही थी. जिदें ठंडी पड़ रहीं थीं. उनकी जगह चालाकियाँ आ गई थीं. दुलार की चाह में कब स्पर्शों ने अच्छी – बुरी लगती लिजलिजाहट ओढ़ ली. मेरे मम्मी – पापा ने भी दूसरे मम्मी – पापाओं की तरह कुछ खास नहीं समझाया. सब खुद खोजना था. हत्यारे तरीकों से, जो बचपन को मारे डाल रहे थे. मैं सच्चाई झुठलाना चाहती थी. फ्रॉक के नीचे निकलती लंबी टांगों को काट देती मेरा बस चलता तो. 

 

 मेरे भीतर की दुनिया और बाहर की दुनिया में कितना फर्क था.  मम्मी का बैड, ईबॉनी लकड़ी के वार्डरोब्स, सुंदर ऑइल पेंटिग्स, नीले लैम्प, पापा का बाथरोब, मम्मी की स्लिपर्स, मम्मी की ड्रेसिंग टेबल रंगीन सुंदर छोटी - बड़ी बॉटल्स से भरी.  सब कुछ कितना कोमल, सुंदर, संभ्रांत.

मेरी अपनी बहुत सी इच्छाएं थी, बहुत से अहसास थे जिन्हें मैं किसी पर उजागर करती, मगर मुझे आंख के इशारे से रोक दिया जाता. मम्मी कहती - तुम कुछ कहना चाहती थीं ?

नहीं. कुछ नहीं मम्मी,” “कुछ परेशान हो?” “नहीं तो मम्मी.” “ कुछ चाहिए बेटा?” “ना मम्मी...” “ कुछ भी नहीं ? बेटा मैं चाहती हूं तुम कुछ कहो ...मांगो कुछ भी .

मेरे पास सब तो है मम्मी. आप इतनी सुंदर हो...एक दम अमरचित्र कथाओं की हीरोइंस जैसी...जब आप स्टेज पर मालती-माधव या रति - अनंग बैलेट करती हो.”

मुझे भाग कर मम्मी से लिपटने का मन करता पर साहस नहीं होता कि कहीं झिड़क न दें. उनकी बगलों की महक में सोना चाहती थी पर अजाने संकोच रोकते कि मैं उनकी निगाहों में बचकानी न हो जाऊं कि कहीं मुझसे कोई बकवास न बुलवा दे, कोई उत्पाती...  मैं अपने मन के एक हिस्से को सुला देती थपथपा कर.

मेरे कमरे में भी सब कुछ रोज सुबह तरतीबी से सजता था, मेरे कमरे में भी एक पेंटिंग थी लेकिन शाम तक सब अस्त - व्यस्त हो जाता. मैं नहीं करती थी. पेंटिंग में जो पेड़ है, उसकी खोह से एक गुबरैला निकलता था . और मैं सब अस्त व्यस्त कर देती.

हर नए दिन के साथ मेरी नियति एक खरोंच डालती शाम तक मैं उससे निजात पाने की कोशिश में मम्मी - पापा और लोगों के बीच रहती.... मगर मन की गहराई में खून बहता रहता.  हमारे बेडरूम्स ऊपर थे, नीचे बड़ा लिविंग रूम, किचन, डायनिंग, मम्मी का डांस स्टूडियो, पापा की स्टडी थे. एक रोज़ की बात है, उस दिन रविवार था और पापा शहर से बाहर थे. मम्मी फुरसत में थीं.  दोपहर की नींद के बाद  मम्मी ने हारमोनियम के साथ मुझे इकतारा लेकर बिठाया और एक नया गीत सिखाने लगीं, मैं थोड़ी ही देर में अनमना गई. मैंने इकतारा के तारों को ज़ोर से खींच कर तोड़ दिया,

गुल, तुम ने डांस सीखने से मना कर दिया कि गुरूजी तुमसे 'मिसबिहेव'करते थे. तुम गाना सीखना नहीं चाहती, ड्रामाटिक्स में तुम्हारी रुचि नहीं. रंग और काग़ज दो तो तुम भयानक चित्र बनाती हो. बेटा, तुम चाहती क्या हो? आजकल तुम्हारे नंबर भी बहुत खराब आ रहे हैं. क्या बात है? बोलो? शकुन भी तुम्हारी शिकायतें करती है.....,!”

मैं उनकी बात पूरी होने से पहले उठ गई. अपने कमरे में बंद हो गई. मैं तकिये में छुप कर रोने, बड़बड़ाने लगी-  “इनको कौन समझाएगा कि कितनी रातों मुझ पर क्या - क्या बीता है! ये बाबू - गुड्डी भूत हैं कि मेरे वहम. ये मेरा शरीर मुझसे बगावत क्यों करता है, ये समझेंगी कभी! ये मेरी जाँघे क्यों टीसती हैं? ये लसलसी लज़्ज़त क्या है जो शर्मिंदगी में डुबो जाती है. ये मेरी गुड़ियाओं और गुड्डों को कौन भद्दी तरह ऊपर नीचे लिटा जाता है? मैं रात भर कांपती, पसीने बहाती हूं. देखो न मम्मी मेरी आँखो के काले गड्ढे, सलेटी होती रंगत. तुम्हें खुद कुछ दिखता है!”

कैसे दिखता!  मेरी हालत मैं दिखाती तब न. जब वे मुझसे कुछ पूछते तो मैं अबोध बन जाती जैसे मुझे कुछ पता ही न हो. मम्मी नीचे जरूर सन्न बैठी रही होंगी, हारमोनियम बंद करने की फटाक आवाज़ आई. उस दिन मैं काबू से बाहर हो गई जब देखा कि मेरे कमरे में बाबू - गुड्डी शाम ढलते ही  बॉलकनी से खट - खट करने लगे. मैंने कहा - “गेट लॉस्ट!” वे खिलखिलाने लगे ताली बजाकर. मैं बाहर निकली और बॉलकनी से नीचे कूद गई.  पहली बार मैंने मौत का स्वाद चखा था. यह मीठा था.

बॉलकनी के नीचे घास का बिस्तर था मुझे कुछ नहीं हुआ, पर सब सहम गए.  मैं बिस्तर में लेट कर खुश थी क्योंकि मेरे चारों और सब थे, आत्मीयता की गर्मी थी. मम्मी की गोद, पापा का दुलार था. मुझे लेकर चिंता थी. मेरे भीतरी गुंजल को जानने की कोशिश थी. मुझे लगा कि मैं बता सकूंगी अब.....मुझे पहली बार कुछ जीत का अहसास हुआ. सुबह देर तक महकदार अर्ल ग्रे चाय पीकर पड़े रहना. मम्मी का आस - पास बने रहना. स्कूल से छुट्टी. सुरीली सुबह. बाबू - गुड्डी से मेरी निजात हो गई थी. तकलीफों का अंत गुलाबी रोशनी के साथ हुआ जो मेरे दिमाग़ में से धुआं - धुआं उठती लेकिन उन दिनों का असर आज तक है. जब पहली बार मुझे गुलाबी रोशनियों के वहम हुए तो मुझे लगा कि मेरे साथ कुछ खास और दैविक हो रहा है.

इस उम्र में बच्चे बना लेते हैं ‘अवास्तविक’ दोस्त

पापा ने अपने किसी डॉक्टर मित्र को घर बुलाया. पापा - मम्मी और वे देर तक बैठक में सोफे पर बैठ कर बातें करते रहे. मैंने बस यह सुना - भाईसाहब, दवाईयां देना तो ठीक नहीं इस उम्र में. दुआ करिए खुदा ने चाहा तो सब ठीक होगा. इस उमर में बच्चे बना लेते हैं ‘अवास्तविक’ दोस्त. यह पहला वाक़या था जब मैं जान गई थी कि मैं नॉर्मल नहीं फ्रीक हूं.       

Manisha Kulshreshtha

Book Review : नींद और जाग के बीच की पुकार है अनिरुद्ध उमट की ‘नींद नहीं जाग नहीं’ किताब

मनीषा कुलश्रेष्ठ इस वक़्त की सबसे  महत्वपूर्ण लेखिकाओं में एक हैं. बिहारी सम्मान प्राप्त मनीषा जी की कई किताबें बेहद प्रशंसित हैं. 

 

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