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Fiction Writer: सूर्यनाथ सिंह का नया बाल उपन्यास है 'मशीनों का सत्याग्रह'. इस उपन्यास में उन्होंने 22वीं सदी की कल्पना की है जहां मशीनें भी मनुष्यों के साथ काम करती नजर आएंगी. इसके बाद कैसे मशीनों ने अपने लिए नागरिकता की मांग की और कैसे सत्याग्रह किया - इसका रोचक विस्तार पढ़ें इस उपन्यास में.
डीएनए हिंदी : हिंदी अकादेमी ने वरिष्ठ साहित्यकार, अनुवादक और पत्रकार सूर्यनाथ सिंह को बाल साहित्य पुरस्कार 2023 से नवाजा है. सूर्यनाथ सिंह को यह सम्मान उनके उपन्यास 'कौतुक ऐप' के लिए मिला है. बता दें कि उन्होंने अब तक किशोरों के लिए 5 उपन्यास लिखे हैं जिनमें 4 प्रकाशित हैं और 5वां प्रकाशनाधीन. बाल कहानियों के दो संग्रह भी उनके खाते में हैं. सूर्यनाथ सिंह के उपन्यासों के नाम हैं - बर्फ के आदमी, सात सूर्य सनतावन तारे, बिजली के खंबों जैसे लोग, कौतुक ऐप, मशीनों का सत्याग्रह (प्रकाशनाधीन). उनके कहानी संग्रह हैं - शेर सिंह को मिली कहानी, तोड़ी कसम फिर से खाई.
सूर्यनाथ सिंह से बातचीत का यह अंश 14 नवंबर को प्रकाशित करने की योजना थी, पर कुछ अपरिहार्य वजहों से तब इसे प्रकाशित नहीं किया जा सका. ऐसे समय में दुष्यंत कुमार की कविता की कुछ पंक्तियां याद आ गईं - मनाना चाहता है तो मान ले/त्योहार का दिन/ आज ही होगा. बस, इसके बाद लगा कि दिन विशेष को बच्चों के नाम क्यों किया जाए, हर दिन बच्चों का ही है और बाल दिवस के गुजर जाने के बाद भी हम आपके लिए आपके लेखक की बातचीत लेकर हाजिर हो गए. पढ़ें सूर्यनाथ सिंह से हुई लंबी बातचीत के कुछ अंश:
सवाल : आपने बांग्ला से हिंदी में अनुवाद करने का काम भी किया है, कविता, कहानी, लेख भी लगातार लिखते रहे, एक दैनिक अखबार की नौकरी भी कर रहे हैं. तो ऐसे में आपने बाल साहित्य की राह कब और कैसे पकड़ी?
जवाब : बाल साहित्य रचते हुए 24-25 बरस से ज्यादा बीत चुका अब तो. इस दिशा में लिखना जो शुरू हुआ वह महज संयोग है. तब नंदन में काम करते थे प्रकाश मनु. वे बड़ों के लिए भी साहित्य लिखते थे. तब मैं दिल्ली प्रेस में काम करता था और सिर्फ कविताएं लिखता था. तो मैं प्रकाश जी से मिलने गया था. यह बात 1995-96 की रही होगी. तब उन्होंने कहा कि आपको गद्य भी लिखना चाहिए, नंदन के लिए आप कहानी लिखकर दीजिए. तब मैं बच्चों के लिए लिखी गई कहानियां पढ़ता तो रहता था, पर लिखना एक मुश्किल काम था. कुछ दिन सोचा, फिर पिताजी की सुनाई एक कहानी याद आ गई. वहीं से प्लॉट लिया और एक कहानी लिख डाली. यह मेरी पहली कहानी थी जो बाल पत्रिका नंदन में छपी. हालांकि यह बात मैंने प्रकाश मनु जी को बता दी थी कि इसका प्लॉट मैंने एक लोककथा से लिया है जो मेरे बचपन में मेरे पिता ने मुझे सुनाई थी. यह जानने के बाद भी उन्होंने इसे छापा. क्योंकि उस समय लोककथाओं के आधार पर लिखी गई कहानियां खूब छपती थीं. इस कहानी के छपने के बाद प्रकाश जी अक्सर पूछ लेते थे कि कुछ लिखा क्या बच्चों के लिए? तो इस तरह एक दबाव बना रहने लगा मुझ पर. फिर उनके अलग-अलग विशेषांक निकलते थे साल में. जैसे परी कथा विशेषांक निकलता था, कभी विज्ञान कथा विशेषांक निकलता था. तो उसके लिए भी कहानियां मांगते थे. तो वहां से मेरे बालकथा लेखन का सिलसिला शुरू हुआ.
बाद में दिल्ली प्रेस की बाल पत्रिका चंपक के लिए भी कहानियां लिखीं. दोनों पत्रिकाओं के लिए बालकथा लिखते हुए उनकी प्रकृति का ध्यान रखा. चंपक के जो पात्र होते थे वे पशु-पक्षी होते थे, जबकि नंदन के पात्र आधुनिक बच्चे होते थे या राजा-रानी होते थे. तो इस तरह मेरे पास कहानियां जुटने लगीं. प्रकाश मनु ने एकबार कहा कि अब तो आपके पास 20-25 कहानियां हो गई होंगी. और फिर उन्हीं के कहने पर मेरा पहला कहानी संग्रह आया - शेर सिंह को मिली कहानी. इस संग्रह पर मुझे हिंदी अकादेमी अवॉर्ड मिला था. इसके बाद 'बर्फ के आदमी' संग्रह पर मुझे भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार मिला था.
सवाल : आपका कोई कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ है?
जवाब : नहीं. कविताएं तो मेरी सारी खो गईं. एक बार रेडियो कलकत्ता में गया था. कविताओं की रिकॉर्डिंग होनी थी. रिकॉर्डिंग के बाद उन्हें मेरी रिकॉर्डेड कविताओं की फोटो कॉपी चाहिए थी. मैं फोटो कॉपी लेकर नहीं गया था. तो अपनी कविताओं की फाइल ही उन्हें मैंने दे दी कि फोटो कॉपी कराकर रख लीजिएगा. बाद में कभी आऊंगा तो अपनी फाइल ले जाऊंगा. लेकिन यह फिर हो न सका और वह फाइल वहीं रह गई, मेरे पास मेरी कविताएं रह ही नहीं पाईं.
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सवाल : आप अनुवाद भी करते रहे, कविताएं भी रचीं, बाल लेखन भी खूब किया, लेखों में आपकी खूब दिलचस्पी रही है, पढ़ते भी खूब रहे और शोध-परक लेख भी लिखते रहे, तो शोधपरक लेख हो साहित्य की किसी विधा में लिखना - उनमें और बाल साहित्य लिखने में क्या अंतर आप पाते हैं.
जवाब : हां, बाल साहित्य में कठिनाई तो है. कठिनाई ये है कि उस स्तर पर जाकर सूचनाओं को, बच्चों की गतिविधियों को देखना-समझना और फिर उन्हें लिखना तो मुश्किल है है. बच्चे चीजों को कैसे देखते हैं, कैसे समझते हैं, उनकी प्रतिक्रियाएं कैसी होती हैं - उन्हें समझना बहुत जरूरी है. बच्चे बहुत सारे मामले में हमारी तरह तार्किक नहीं होते, उनको एक मनोरंजन प्रधान चीज चाहिए होती है. उनके देखने-सुनने-समझने में एक रिद्म होता है, एक लय होती है, कह सकते हैं कि एक तरह की 'रीजनिंग' होती है. इस रीजिनिंग को पकड़ना बहुत जरूरी है. आपको बताऊं कि बाल साहित्य लिखने में मेरे बच्चों का बड़ा सहयोग रहा है. दरअसल, वे जब छोटे थे तो उनकी एक आदत थी कि वे कहानी सुनते-सुनते सोते थे. उनको रोज एक नई कहानी चाहिए होती थी. कोई पुरानी कहानी सुनाना शुरू करता तो वे कह देते थे कि यह तो सुनी हुई है, नई कहानी सुनाओ. तो ऐसे में मुझे रोज एक नई कहानी का प्लॉट खोजना पड़ता था, उन्हें सुनाते-सुनाते ही कहानी भी रचता जाता था. तो इस तरह कहानियां जुटने लगीं.
इसके अलावा मैं हिंदुस्तान टाइम्स में जब काम करता था तो बच्चों के लिए एक अखबार निकाला - स्कूल टाइम्स. तो इस दौरान हर हफ्ते मैं किसी न किसी स्कूल में जाता था. इसके लिए हमने तय किया हुआ था बुधवार का दिन. वहां कई बार मैं बच्चों को कहानियां भी सुनाता था. तो जैसे राजा-रानी की कहानियां बच्चों को पसंद होती हैं. तो एक बार मुझे बहुत अच्छा अनुभव हुआ. एक बार मैंने बच्चों को राजा-रानी की एक कहानी सुनाई, जिसमें बताया कि राजा मूंगफली बेचता था. छोटे-छोटे बच्चे थे. उनको बड़ा मजा आया कि राजा मूंगफली बेचता था. और बच्चे राजा की मूंगफली चोरी कर लेते थे. तो इस तरह से बच्चों की कहानियों में कई बार कोई तर्क नहीं होता, मनोरंजन होता है, खिलंदड़ी दुनिया होती है. तो लगातार मैं बच्चों को देखता रहता हूं, उनकी गतिविधियों पर गौर करता हूं. उनसे बातें करके बहुत अच्छा लगता है. उनसे बहुत सारी चीजें मिल जाती हैं. तो सही बताऊं कि उसको लिखने में बड़ा आनंद आता है. यह आनंद बड़ों के लिए लिखने में नहीं आता है.
सवाल : बच्चों के स्कूल में जाने और उनसे जुड़े रहने की बात मुझे लगता है कि 15-20 बरस पुरानी हो गई होगी, क्योंकि हिंदुस्तान छोड़े भी आपको इतने बरस हो गए. इन 20 वर्षों में बच्चों की भी दुनिया बहुत बदल चुकी है. तो अब जब आप दिनभर दफ्तर में रहते हैं तो इन बच्चों की दुनिया को परखने का अवसर कब मिलता है?
जवाब : एक बात और है कि जो मैं लगातार सुनता रहता हूं और महसूस भी करता हूं कि जो लोग बाल साहित्य से जुड़े नहीं हैं वो बच्चों का मतलब अक्सर 'चंदा मामा दूर के' टाइप मान लेते हैं. कि जैसे बिल्कुल गोद में खेलता हुआ शिशु बालक. देखिए, मैं शिशु साहित्य, बाल साहित्य और किशोर साहित्य - इन तीन श्रेणियों में मैं विभाजित करता हूं. तो किशोर साहित्य के लिए मैं लिखता हूं, तो उनकी दुनिया बिल्कुल शिशु और बालकों से बिलकुल अलग तरह की दुनिया है, जो लगभग बड़ों की दुनिया है. वे इतने छोटे नहीं हैं कि उनके लिए हिरण और गाय की कहानी लिखिए तो वो आनंदित होते हैं. जैसे हमारे बच्चें हैं तो उनको विज्ञान फैंटेसी बहुत पसंद आती है. साइंस फिक्शन बहुत पसंद आता है. अभी-अभी जो मेरी नई किताब नैशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी) से आनेवाली है, वह है 'मशीनों का सत्याग्रह'. इसमें अगली सदी जो हमारी आएगी, 22वीं सदी जो शुरू होगी, तो उस 22वीं सदी में क्या होगा कि पूरी दुनिया में एक तिहाई कर्मचारी जो हैं दफ्तरों में वो मशीनें हैं. मतलब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) वाली जो मशीनें होती हैं वो हैं, उसकी एक कहानी बुनी गई है. तो मशीनें इतनी सशक्त हो जाती हैं कि वो अचानक सत्याग्रह पर उतर आती हैं और वो इंडिया गेट और देश भर में जगह-जगह इकट्ठा होकर सत्याग्रह करती हैं. वे कहती हैं कि हमें नागरिकता चाहिए. जैसे इनसानों को नागरिकता मिलती है, वैसे ही हमें भी नागरिकता दो. हमारा एक सिस्टम होगा, हम चुनाव लड़ेंगे. तो इसमें क्या होता है कि एक संघर्ष चलता है... तो ये सब चीजें कहने के लिए आप इसे बाल श्रेणी में डाल दीजिए, लेकिन इस तरह की कहानियां बड़ों को भी आकर्षित करने वाला प्लॉट है. अब देखिए न कि जिस तरह की फिल्में बच्चे देख रहे हैं, उनसे उन फिल्मों पर बात कीजिए या फिर सीरियल पर बात करिए, तो जिस ढंग से वो व्याख्याएं करते हैं, मैं सिर्फ अपने बच्चों की बात नहीं कर रहा हूं, मेरे बच्चे तो किशोरावस्था से निकल गए. लेकिन दूसरे बच्चों से बात करिए तो फिल्मों को देखने का हमसे ज्यादा परिपक्व नजरिया उनके पास है.
सवाल : इसी बात पर मुझे ध्यान आता है कि बच्चों से उनका बचपन छिन जाने की बात लोग अक्सर करते हैं. तो जब बच्चों का बचपन उनसे छिन गया और किशोर असमय बालिग हो गए तो इस बाल साहित्य या किशोर साहित्य का क्या महत्त्व रह गया?
जवाब : नहीं, एक बात मैं कहता हूं कि नॉस्टेल्जिया में जाकर हम चीजों को नहीं देख सकते, देखना भी नहीं चाहिए कि जैसे हमारा बचपन था कि आम के पेड़ पर दोपहरी में कूदते रहते थे और टिकोरा तोड़कर खाते थे और गिल्ली-डंडा खेलते थे. वही हम आज के बच्चे से अपेक्षा करें तो वो ठीक नहीं है. यह सही है कि उनपर पढ़ाई-लिखाई का दबाव अलग तरह का बन गया. उनकी मनोरंजन की दुनिया बदल गई बिल्कुल. वे घर में बैठकर इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेज पर चीजों को देखते हैं और उससे मनोरंजन करते हैं, गेम खेलते हैं. तो समय के साथ-साथ चीजें बदलती हैं, विकृतियां भी आती हैं. जब हम भी छोटे थे तो बड़े लोगों की अपेक्षा हमारी दुनिया अलग थी. हमको लेकर चिंता उनकी भी थी, हमारी भी हमारे बच्चों को लेकर है. लेकिन बच्चे आज की दुनिया के ढंग से अपने मनोरंजन की चीजें चुन रहे हैं, अपने ढंग से जीवन को ढाल रहे हैं. हम लाख कहते रहें कि भई पिज्जा खाते रहते हो, चौमिन खाते रहते हो वो ठीक नहीं है. लेकिन चूंकि ये उनके बचपन से फूड हैबिट में आ गया, ये उनकी लाइफ स्टाइल का हिस्सा बन गया तो वे उस ढंग से पल-बढ़ रहे हैं. उस ढंग से उन्होंने स्वीकार कर लिया है. तो एकदम से ये नहीं कहना चाहिए कि बचपन छीन लिया है. सच यही है कि उनके पास उनका बचपन है, लेकिन वह हमारे बचपन से अलग है.
सवाल: आपको ध्यान होगा कि कुछ महीने पहले एक विवाद उठा था बाल कविता में आम चूसना को लेकर, कहा जा रहा था कि यह कविता अश्लील है. यह बच्चों के लायक नहीं और इस कविता को बच्चों की पुस्तक से हटवाने के लिए सोशल साइटों पर मुहिम छेड़ दी गई थी.
जवाब : देखिए ये दरअसल विवाद क्या है... हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसमें बहुत सारी बोलियों का सहयोग है. मैं जो हिंदी बोल रहा हूं उसमें मेरी बोली शामिल है. मैं अपनी बोली का संस्कार लेकर हिंदी में आया हूं, आप अपनी बोली का संस्कार लेकर आए हैं. तो जितने लोग हिंदी बोल रहे हैं उसमें कोई छत्तीसगढ़ी लेकर आया है, कोई भोजपुरी लेकर आया है, कोई मैथिली-मगही. इस तरह राजस्थानी...पंजाबी... और बहुत सारी भाषाओं और बोलियों को लेकर लोग हिंदी में आए हैं, लेखन कर रहे हैं. तो जरूरी नहीं कि एक शब्द हर भाषा-भाषी को एक ही अर्थ ध्वनित करे. वह शब्द अलग-अलग अर्थ भी दे सकता है. मान लीजिए कि छोकरी जो शब्द है वह भोजपुरी में गाली की तरह हो, लेकिन छत्तीसगढ़ी में तो यह शब्द आम है. इसी तरह शब्द है लौंडा, जब आप पूर्वी उत्तर प्रदेश में जाएंगे या बिहार में तो वहां लौंडा शब्द बिल्कुल दूसरे अर्थ में ही इस्तेमाल होता है. बिहार और यूपी के पूर्वी हिस्से में लौंडा उन लड़कों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो शादी-ब्याह या खास अवसरों पर साड़ी पहनकर नाचता है. लेकिन छत्तीसगढ़ी में लौंडा शब्द बेहद सहज है. अपने बच्चे के लिए लोग लौंडा शब्द का इस्तेमाल करते हैं. लौंडा-लौंडिया या छोरा-छोरियां शब्द वहां के लोगों के लिए जरा भी असभ्य नहीं हैं. तो जिस कविता के जिन शब्दों को लेकर विवाद खड़ा किया गया वहां हमें यह समझने की जरूरत है कि जिसने लिखा उसने अपनी बोली को लेकर लिखा. चूसने का शब्द ही लें तो जो जहां पर प्रचलित है वो वहां के लिए अश्लील तो नहीं है न, अब दिक्कत आती है कि जो चीज है कविता में, जो आई हुई है, उसको पढ़ाते समय व्याख्या करने वाले का दायित्व है कि वह कैसे समझाता है या उसकी कैसे व्याख्या करता है. अब हम आप साहित्यकार जूझते रहें अपने आग्रहों-पूर्वाग्रहों को लेकर, उससे क्या होना है. हिंदी शब्द सागर में देखें तो चूसना शब्द मिलेगा. उस कोश में इसे क्रिया बताया गया है और यह संस्कृत के चूषणा से बना है. कोश ने इसका अर्थ जीभ और होंठ के संयोग से किसी पदार्थ का रस खींच खींचकर पीना बताया है. कोश में इसका इस्तेमाल कर समझाने के लिए उदाहरण भी दिया गया है — आम चूसना, गँडेरी चूसना. वैसे, अब जो भोजन करने की 3-4 विधियां बताई जाती हैं, उसमें चूसना भी एक विधि है. तो इस शब्द को अश्लील बताकर कोई मुहिम चलाने की जरूरत नहीं थी. मैं मानता हूं कि थोड़ी संकीर्णता छोड़नी भी चाहिए हमको.
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सवाल : हिंदी में ये जो भाषा का घालमेल आ रहा है, क्या अब के बाल साहित्य में इसका इस्तेमाल होना चाहिए या विशुद्ध हिंदी का प्रयोग होना चाहिए?
जवाब : आपका सवाल वाजिब है. आपका इशारा अंग्रेजी की तरफ है कि हिंदी में अग्रेजी के बहुत सारे शब्द आ रहे हैं. यह सही है, इस पर आपत्ति मुझे भी रहती है. यह सही है कि आज का जो बच्चा है, युवा है चाहे वो कस्बे का हो या किसी शहर का, उसकी पढ़ाई पब्लिक स्कूल में हो रही है, जहां अंग्रेजी का जोर है. तो उसकी भाषा अधकचरी सी हो गई है. वो हिंदी बोलते-लिखते समय अंग्रेजी का इस्तेमाल करता है. तो उसको ध्यान में रखते हुए हम क्या करते हैं कि उसकी बोलचाल की भाषा को लाने के लिए अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल करने लगे हैं. मेरे पास बाल साहित्य की कई पांडुलिपियां भी आती रहती हैं. मैं इन्हें पढ़ते रहता हूं. बहुत सारे लोग हिंदी में अंग्रेजी का इस्तेमाल कर रहे हैं. और अगर वो साइंस पर लिख रहे हैं तो निश्चित रूप से. यह सही है कि कुछ मामलों में हम बिल्कुल पंगु हैं. जिसे विज्ञान पर लिखना हो, तो जो टर्मिनॉलजी है, जो तकनीकी शब्दावली है, उसमें हम पंगु हैं, उसे तो हमें लेना होगा, यहां तक तो क्षम्य है. लेकिन यह बिल्कुल गलत धारणा है कि बच्चे चूंकि अधकचरी भाषा बोल रहे हैं, मतलब आधी हिंदी आधी अंग्रेजी बोल रहे हैं. लेकिन अगर आप उनके लिए हिंदी लिखते हैं, शुद्ध हिंदी का मतलब जो आम है जो हम लिखते हैं, तो ऐसा नहीं है कि उनको समझ नहीं आएगी. तो मेरा आग्रह यही है कि जब हम हिंदी में लिख रहे हैं तो जितना संभव हो सके हिंदी का ही प्रयोग करें. हम क्यों नाहक अंग्रेजी घुसेड़ें?
सवाल : आपकी हिंदी अच्छी है, अंग्रेजी, भोजपुरी और बांग्ला पर भी पकड़ अच्छी है. अवधी और मैथिली में भी गति कमोबेश ठीक है. तो इतनी भाषाओं की जानकारी, उनके अलग-अलग शब्दों की समझ - बाल साहित्य लेखन में कहीं आपकी मदद करती है?
जवाब : बहुत मदद मिलती है. आपको एक उदाहरण बताता हूं. चू्ंकि बांग्ला मैं जानता हूं और असमिया (सही उच्चारण अखोमिया) इसके बहुत करीब है. तो कहानियों के अनुवाद के एक वर्कशॉप में गुवाहाटी गए. तो वहां की कहानी में आया कि एक बच्चा हाथ में दाबी लेकर जंगल में जा रहा है. रास्ते में उसे सांप मिलता है तो वह उसका गला काट देता है. मैंने वहां कहा कि ये तो हिंसा है. ऐसी बातें हम नहीं पढ़ाते अपने बच्चों को, मतलब इस तरह की चीजें सिखाते नहीं. तो उन्होंने कहा कि ये यहां के जीवन में घुला हुआ है. बिना दाबी लिए बच्चा जाएगा नहीं, क्योंकि यहां जहरीले सांप हैं और इस तरह के जीव-जंतु हैं तो उससे बचाव के लिए दाबी लेकर जाएगा बच्चा. और वो सांप को मारना बहुत सहज और सामान्य बात है यहां. तो देखिए कि एक ही प्रसंग असमिया में किस तरह से आता है और वही हिंदी में किस अर्थ में लिया जाएगा. तो जाहिर है भाषा ज्ञान आपकी मदद करता है. मान लीजिए आपको कोई परिवेश रचना है कहीं का, कोई ऐसा पात्र रचना हो. क्योंकि हम पात्र भी तो रचते हैं न, तो वहां की भाषा अगर आप जानते हैं तो बहुत मदद मिल जाती है. तो इन भाषाओं के शब्दों ने मेरी खूब मदद की है. देखिए हमलोगों को यह आग्रह लेकर नहीं चलना चाहिए लिखते समय कि जो हम लिख रहे हैं वह हर किसी की समझ में आएगा. नहीं समझ में आएगा तो वह पूछेगा, पता करेगा अगर उसमें क्यूरोसिटी है, उत्सुकता है तो. तो इस तरह उसको हम नया शब्द भी तो दें न. और एक लेखक का काम सिर्फ ये नहीं है कि एक कहानी या एक कविता उसको दे दें. हमारा एक काम यह भी है कि हम कुछ नए शब्दों से अपने पाठकों को परिचित भी कराएं. आपको अपने बच्चों को अपने लिखे से ट्रेंड भी करना है कि वह पूछे, शब्दकोश भी देखे. यानी शब्दों के प्रति उसकी जिज्ञासा बनी रहे. तो हमारा ये भी काम है कि शब्दों से उन्हें जोड़ें, उनके भीतर जिज्ञासा पैदा करें कि आखिर क्या है ये शब्द. शब्द अच्छा लगा तो निश्चित रूप से वो पता करेगा.
सवाल : सूर्यनाथ जी, आखिरी सवाल कि आप बाल साहित्य, किशोर साहित्य से खूब जुड़े रहे, पर क्या आपने कभी ऐसा कुछ किया कि कोई किशोर या कोई युवा बाल साहित्य लिखने के लिए प्रेरित हो?
जवाब : किया न. अभी तो बताया कि हिंदुस्तान टाइम्स में काम करते हुए वहीं से हमने स्कूल टाइम्स निकाला था. हम बच्चों के पास उनके स्कूल जाया करते थे, उन्हें लिखने के लिए प्रेरित करते थे. उनसे लेख लिखवाते थे, पुस्तक समीक्षा भी करवाते थे. कई बार तो नामी लेखकों की किताब उन्हें दे दिया करता था समीक्षा के लिए. हम उनका लिखा छापते थे और इन समीक्षाओं पर, उनकी लिखी कहानियों पर, आलेखों पर बच्चों से ही स्केच बनवाया करता था और उसी का इस्तेमाल आलेखों, समीक्षाओं, कहानियों के बीच किया करता था. और सबसे बड़ी बात कि बच्चों का उत्साह देखते बनता था. वे बढ़-चढ़कर लिखने को तैयार रहते थे. बाद में यह काम छूट गया.
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