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DNA Kavita Sahitya: फिल्म लेखक-निर्देशक अविनाश दास की जीवन को छूतीं टटकी कविताएं

Poetry Collection: अनारकली ऑफ आरावाली के बाद अविनाश दास ने ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए भी फिल्में कई वेब सीरीज का निर्देशन किया. रात बाकी है, शी, यू शेप की गुगली ऐसे ही कुछ नाम हैं. फिल्मों से जुड़ने के बाद भी अविनाश कविताएं रचते रहे. उनकी ऐसी ही कविताओं का संग्रह है 'जीवन कर्जा गाड़ी है'.

DNA Kavita Sahitya: फिल्म लेखक-निर्देशक अविनाश दास की जीवन को छूतीं टटकी कविताएं

फिल्म अनारकली ऑफ आरा के लेखक और निर्देशक अविनाश दास.

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डीएनए हिंदी : अब अविनाश दास फिल्म लेखक और निर्देशक के रूप में पहचाने जाते हैं. हालांकि इससे पहले उन्होंने लंबे समय तक पत्रकारिता की. बिहार और झारखंड में उनकी शुरुआती पहचान घुमंतू रिपोर्टर वाली रही. उन्होंने नक्सलियों की जनअदालत की भी रिपोर्टिंग की है और बिहार के बाढ़ की भी. साहित्यिक रुझान की वजह से लेखकों, कथाकारों. कवियों, नाटककारों से की गई बातचीत भी प्रकाशित होती रही. इस दौरान उनकी पहचान बतौर कवि भी बनी. हिंदी ब्लॉगिंग के शुरुआती दिनों में 'मोहल्ला' नाम का इनका ब्लॉग खूब चर्चित रहा. 
प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को विदा कहने के बाद कुछ दिन इन्होंने अध्यापन का भी काम किया. पर बाद के दिनों में मुंबई में जा बसे. 'अनारकली ऑफ आरा' इनकी पहली फिल्म थी. इस फिल्म के लेखक और निर्देशक के रूप में अविनाश खूब पसंद किए गए. ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए भी इन्होंने फिल्में और कई वेब सीरीज का निर्देशन किया. रात बाकी है, शी, यू शेप की गुगली ऐसे ही कुछ नाम हैं. फिल्मों से जुड़ने के बाद भी साहित्यलेखन से अविनाश ने खुद को कभी अलग नहीं किया. अविनाश की कविताओं का संग्रह 'जीवन कर्जा गाड़ी है' 2016 में आई थी. तो डीएनए के पाठकों के लिए पेश है अविनाश दास की कुछ रचनाएं : 


1.

मिलता था गेहूं जब आने में सवा
कंधे थे बांहें थी दुर्दिन की दवा
लोग नहीं लोग रहे, हवा नहीं हवा
रोटी से खाली है एक एक तवा

मुल्क वो नहीं है अब, जिस पर हो नाज
बागमती फूट फूट रोती है आज

आता था रोज रोज, कभी नहीं आता
कोई भी मौसम हो, कुछ नहीं सुहाता
हैदर भी घर से अब चिकन नहीं लाता
राजू के घर से भी मीट नहीं जाता

हिंदू और मुसलिम में बंट गया समाज
बागमती फूट फूट रोती है आज

पटना बनारस हो या हो कन्नौज
गांव गांव शहर शहर लुच्चों की मौज
दफ्तर के बाबू का पेट बना हौज
सड़कों पर बेबस बेचारों की फौज

तोते को कैद मिली गिद्धों को ताज
बागमती फूट फूट रोती है आज

रागों ने छोड़ दिया कंठों का साथ
थाम लिया कानों ने भोंपू का हाथ
नई सब मशीनों ने तान ली कनात
साजिंदों के हिस्से रोटी न भात

गीतों की गठरी पर बैठ गए बाज
बागमती फूट फूट रोती है आज

2.

सुख की हजार गली
दुख का बस कोना
छुप छुप कर कभी कभी चुपके से रोना

छत हो न छाया हो, धूप बड़ी तीखी हो
नागफनी मन में चिंगारी सरीखी हो
बचपन में बूढ़ों से ये बातें सीखी हों

चार चना गमछे में रख कर भिगोना
छुप छुप कर कभी कभी चुपके से रोना

बीड़ी हो, पान और कतरी सुपारी हो
हम तो निहत्‍थे हों, दुश्‍मन दोधारी हो
दुनिया से जाने की पूरी तैयारी हो

भीतर की ताकत को पूरा संजोना
छुप छुप कर कभी कभी चुपके से रोना

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3.

होता है
कभी कभी होता है

जहां यह समाज नहीं
जहां राज-काज नहीं
एक भी आवाज नहीं
चील नहीं, बाज नहीं

प्‍यार की चिरैया का खोंता है
होता है
कभी कभी होता है

गले में है सोज बहुत
दर्द रोज रोज बहुत
खुद को ही खोज बहुत
जीवन यह बोझ बहुत

कौन किसे कहां कहां ढोता है
होता है
कभी कभी होता है

4.

एक दूनी दो
दो दूनी चार
आंगन में पसरा है आम का अचार

स्‍वाद नाद ब्रह्म ज्ञान गठरी में मोटा
गुदड़ी में सस्‍ता है पीतल का लोटा
ऊंचे को मिलता है कॉलेज में कोटा
घर में घिसटता है जाति से छोटा

चोरी से लटका है बिजली का तार
एक दूनी दो
दो दूनी चार
आंगन में पसरा है आम का अचार

पीले पलस्‍टर के कोठे में रहना
दुख हो तो दुख को आहिस्‍ते से सहना
नदिया के जैसा ही कल कल कल बहना
कहना जरूरी हो तो ही कुछ कहना

ढहने से आती है जीवन में धार
एक दूनी दो
दो दूनी चार
आंगन में पसरा है आम का अचार

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5.

पानी में मछली
हाथो में डफली
बचाओ बचाओ

ढहती गिरती छत
बातों में शरबत
बचाओ बचाओ

शाखों पर कोयल
बासमती चावल
बचाओ बचाओ

जाड़े में सूरज
पुराना पखावज
बचाओ बचाओ

मीठा बताशा
मिट्टी की भाषा
बचाओ बचाओ

6.

क से कमला
ग से गा
ढ से ढोल बजा

पोखर ऊपर जलकुंभी है, टावर ऊपर घंटा
सर के ऊपर भरी टोकरी, माटी ऊपर भंटा
आसमान में उड़ते पंछी, मेले में गुब्‍बारे 
आंखों में असमंजस भारी, सब दुविधा के मारे

ओ री बुद्धि
जा तू जाकर
खाली में भर जा

तपता सूरज, बढ़ती गर्मी, कितना और पसीना
बिना बात के सरहद सरहद सैनिक ताने सीना
झंडे वाली भीड़ सड़क पर, कौन चलाए गोली
कमरे का कूलर करता है श्रम से हंसी ठिठोली

कौन उठाएगा
विरोध की
गिरती हुई ध्‍वजा

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7.

जो हमारे
और सबके सामने है
बहुत सीधा नहीं है वह दृश्‍य
आज भी छिप कर चबेना खा रहे हैं
गांव में और शहर में अस्‍पृश्‍य

अफसरों के हैं गुलाबी गाल
करो तुम हक के लिए हड़ताल
या करो तुम आमरण अनशन
कोठियों में सड़ेंगे राशन

जो हमारे
और सबके सामने है
बहुत सुलझा नहीं है वह जाल
रंग अपने रंग खोते जा रहे
गुमशुदा है हरा नीला लाल

टांग दो दीवार पर नारे
कुछ करो कुछ तो करो प्‍यारे
हम चले नुक्‍कड़ पे पीने चाय
क्‍या करें जब मुल्‍क ही निरुपाय

जो हमारे
और सबके सामने है
बहुत सीधी नहीं है यह राह
अमीरों की ठाट के नीचे
छिड़क दो कुछ गरीबों की आह

8.

ठीक है कि रसोई में अन्‍न का दाना नहीं है
ठीक है कि रोशनी का कोई परवाना नहीं है
ठीक है कि कहीं भी आना नहीं जाना नहीं है
ठीक है कि किसी को भी हमें समझाना नहीं है

ठीक है कि हम सभी उम्‍मीद के पीछे पड़े हैं
ठीक है कि पंक्तियों में कायदे से सब खड़े हैं
ठीक है कि पेड़ के पत्ते हरे हैं और भरे हैं
ठीक है कि मुफलिसी में ख्वाब भी इतने बड़े हैं

ठीक है कि देर रातों में भी कुछ पंछी जगे हैं
ठीक है कि चोर मौसेरे नहीं भाई सगे हैं
ठीक है कि गैर क्‍या उसने सगे भी ठगे हैं
ठीक है कि आसमानों में नहीं तारे उगे हैं

एक दिन तो पेट भर के खा सकेंगे लोग सारे
एक दिन तो भाग जाएंगे बुरे सपने हमारे
एक दिन तो छंटेंगे बादल घनेरे और कारें
एक दिन तो प्‍यार का होगा
कहो क्‍या
नहीं प्‍यारे?

9.

अंबर में धागा लटका है
धागों में सपने लटके हैं
सपनों में घुन पीले पीले कितने घने घने लटके हैं

इस दुनिया से उस दुनिया तक सड़क बनी है
हां लेकिन थोड़ी दूरी पर नागफनी है
सन सन सन सन हवा और क्‍या कनकनी है
जिसने देख लिया यह रस्‍ता वही धनी है

अच्‍छे अच्‍छे लोग यहां पर
देखो प्रेत बने लटके हैं
सपनों में घुन पीले पीले कितने घने घने लटके हैं

मन का सूरज देख रहा है आंखें फाड़े
बाल सुनहरे खुली धूप में कौन संवारे
दुख का भिक्षुक खड़ा हुआ है द्वारे द्वारे
टूट रहे हैं धीरे धीरे सुख के तारे

बहुत पुराने बरगद में भी
ठूंठे हुए तने लटके हैं
सपनों में घुन पीले पीले कितने घने घने लटके हैं

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