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DNA Kavita Sahitya: मानवीय ऊष्मा से भरी-पूरी प्रकाश देवकुलिश की सात कविताएं

DNA Poetry: प्रकाश देवकुलिश संस्कृति, संस्कार और सरोकार के कवि हैं. उनकी कविताओं में मनुष्यता की ऊष्मा है. आत्मीयता का बहाव है. संवेदनशीलता की गहरी परतें हैं. वे 'रधिया दाई' की बात करें या 'अनंदी महतो की कुदाल' की, इनसान और उसकी इनसानियत को बिल्कुल जड़ से पकड़ते हैं.

DNA Kavita Sahitya: मानवीय ऊष्मा से भरी-पूरी प्रकाश ��देवकुलिश की सात कविताएं

वरिष्ठ कवि प्रकाश देवकुलिश.

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डीएनए हिंदी: वरिष्ठ कवि प्रकाश देवकुलिश देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हैं. वैचारिक लेख, अनुवाद और समीक्षा के क्षेत्र में भी सक्रिय लेखन करते रहे हैं. उनकी कविताओं का संग्रह 'असम्भव के विरुद्ध' भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है.
प्रकाश देवकुलिश संस्कृति, संस्कार और सरोकार के कवि हैं. उनकी कविताओं में मनुष्यता की ऊष्मा है. आत्मीयता का बहाव है. संवेदनशीलता की गहरी परतें हैं. वे 'रधिया दाई' की बात करें या 'अनंदी महतो की कुदाल' की, इनसान और उसकी इनसानियत को बिल्कुल जड़ से पकड़ते हैं. उनकी कविता बताती है कि रधिया दाई जैसी घरेलू सहायिकाएं अब के दौर में भी 'प्रफेशनल' नहीं, 'इमोशनल' होती हैं. तो डीएनए के पाठकों के लिए पेश है प्रकाश देवकुलिश की सात कविताएं : 

1. वन पुत्रो 

तुम्हें छूकर जो चलती है हवा 
सहज हो जाती है 
मिलती है निश्छलता की गंध 
जब तुम मिल जाते हो 

तुम हो तो 
प्रकृति बाकी है अभी 
पेड़ों के पत्ते तुम्हीं तो हो,
हरीतिमा लिए 
सांसें दे रहे हमें 

अब भी 
लय और ताल की तुम्हारी रातों में
बिन रही है परस्परता, एकता, एकसूत्रता 

सरना, सरहुल, करमा में
तुम पोसते हो हरियाली को 

अपनी कमजोर आंखों, पके बालों के साथ 
लाठी पकड़ के चलते हुए 
जब मैं देखूंगा 
ऐसे ही दिखोगे तुम मुझे वन पुत्रो?

टुइला, तुरही के शब्द ऐसे ही
तुम्हारी निश्छलता गा रहे होंगे ना?
अखरा, धुमकुड़िया और घोटुल 
इतिहास के पन्ने तो न बन जाएंगे?

क्या हो सकता है एक प्रयास 
कि चांद और मंगल की दौड़ में 
शामिल रहकर भी 
तुममें बची रहे पृथ्वी?  

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2. वे ऐसा क्यों करते हैं 

उनके उपजाए को खाकर
हम बोलते हैं 
वे ऐसा क्यों करते हैं 

बेटे की शादी में हुए कर्ज के लिए आत्महत्या 
क्यों करते हैं 
टीवी के लिए कर्ज के कारण आत्महत्या क्यों करते हैं 
ऐसा करते हैं वे 
तो क्या करे सरकार 

हम कंधे उचकाकर ये बोलते हैं 
और कार, स्कूटी की सीट पर बैठे 
खा लेते हैं पित्जा, बर्गर, सैंडविच 
याद ही नहीं आती 
ये उसी गेहूं से बने हैं 
जिसे उन्होंने ही तन-मन से उगाया है 
पहले सहेजते थे उपज के बीज घर लाकर 
उसकी जगह अब कर्ज लाया है 

पानी भी और बढ़ाता है जिसे
बिजली की पुकार पर 
वे दौड़ते हैं खेतों में 
दिन हो या रात 

फिर जब मंडियों से लौटते हैं वे टूटकर 
आंखों के आगे छाये अंधेरे में
बताने की कोई भाषा नहीं सूझती 
तो हार कर दुनिया को कह देते हैं 
बताने की अपनी तरकीब निकाल कर 

खबर का असर हम पर उतना ही है 
जितना पान की दूकान पर छुट्टे पैसे भूल आने का 

हम मॉल में डायनिंग टेबल पर 
पूछते हैं 
वे ऐसा क्यों करते हैं 
और तेज 'म्यूजिक' में आवाज खो जाती है 

और जिन पर है जिम्मा 
वे बदल रहे हैं आत्महत्या के जमा डेटा को 
कांट्रैक्ट फार्मिंग में 
उनका है ऐसा ही कांट्रैक्ट
वे ऐसा क्यों करते हैं?  

3. प्रणाम 

क्या है ऐसा तुममें 
कि देखते ही मुंद जाती हैं आंखें 
और बजने लगता है 
श्रद्धा का मौलिक अर्थ

क्या उस पार उड़ाए 
लाल अबीर की बची परागधूलि की लालिमा 
जो छाई क्षितिज की गोद में
करुणा बन पुकारती सुबह सुबह?

या पीतिमा
जो मढ़ रही तुम्हारे अंतस तेज पर सोना 
जैसे ठठेरे ने अभी-अभी की हो पीतल की कलई
चमकते धातु के गोल बरतन पर?

या पालने हमें 
पिता की तरह सुबह निकलने और शाम लौटने की 
तुम्हारी दृढ़ दिनचर्या?

उम्मीद, विश्वास, परिवर्तन 
अंदर उढ़ेलते से तुम उग आते हो 
जगाते भरोसा कि
मिलेगी असहमति को जगह 
सामंजस्य को धरती 

चरम से पहले टूटेगा अंधेरा 
फैलते दूध से उजाले में 
एक हो जाएगी खीर सेवई 

तमस केंद्रों पर पड़ता तुम्हारे तेज का प्रहार
होते बरबस कर बद्ध 
हे ऊर्जा के आदि अंत 
प्रणाम!

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4. हे धर्मात्मा 

मठों, अखाड़ों में
धर्म का ये कौन सा रूप है 
धर्मात्मा ये कैसे 
जो हतोत्साह, व्यथित, क्लांत, 
हम जैसे ही 
और हम जाते हैं इनके पास 
इन सबसे मुक्ति की कामना में 

विवाद धन, धान्य या धरती का 
वैसा ही  
जैसा हम करते हैं  

फिर भी हम देते हैं 
इनके नाम पर 
धर्म की दुहाई 

आत्महत्या, हत्या का वही खेल
जेलों के वही सींखचे  

फिर जीते हैं वे 
गीता के किस श्लोक को 
वेद, पुराण की किस ऋचा को
कौन सी चौपाई को, मानस के  

तब क्या है उनके पास 
देने हमें 
धर्म का कौन सा भेद बताकर 
अध्यात्म का कौन सा चरण सिखाकर 
वे आलोकित करेंगे हमें
कब, कैसे ले जाएंगे कर्मकांडों के व्यूह से परे  

वे तो वही रहेंगे
आते रहेंगे 
नए त्रिपुंड, नई भंगिमाओं के साथ
हम सोचें 
तलाशें अर्थ 
कर्मण्येवाधिकारस्ते का, 
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि का
‘सीय राम मय सब जग जानी’ का 
‘बिन बाजा झनकार उठे’ का.    

5. रधिया दाई

कोई बोले, न बोले 
करार हो, न हो
पर्व त्यौहार पर अचानक 
आंगन ओसारा जरूर धोने लगती है 
रधिया दाई 

कोई रोके या टोके तो 
उनकी बातों को 
शांति और स्थिरता के साथ 
झाड़ू से सिहार देती है 
रधिया दाई 

‘परब में ना धोऐते’? बोल देती है 
और बूढ़े, काले हाथों से 
परंपरा की लौ बचाती हुई 
भर बाल्टी पानी उढ़ेल देती है 
रधिया दाई

सादे जल से भर देती है घर में रंग 
हमारे आंगन ओसारे को करके आर्द्र 
खुद सूखी रोटी और सब्जी 
आंचल में बांध 
खुशी-खुशी चल देती है 
रधिया दाई.  

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6. थोड़ा थोड़ा सब

और उससे मिला प्यार 
जो धो जाता था कपड़े 
साबुन पानी से धोना सिखाकर  
साफ सुथरा किया अंतर तक 

उससे भी 
जो दे जाता था रोज सब्जी
आंखों में भरता हरापन 

मुझे आशीष दिया दूधवाले ने 
मदद दी 
चित्त को करने में दूध सा उजला 

चमकना सीखा 
चर्मकार का चमकाना देख 
अपने जूते, चप्पलों को 

काम पर आने वालों ने 
मिलवाए घड़ी के कांटे

थोड़ा थोड़ा सब ने मिल बनाया मुझे 
माता पिता 
सगे संबंधियों के अलावा 
जैसे थोड़ा थोड़ा रहते हैं शामिल सूप, कुआं, मिट्टी 
परंपरा में, 
ठाकुर, मामा, फूफा 
रीति रिवाजों में   
   
अब थोड़ा-थोड़ा रख सबको 
दे सकता हूं 
मैं कितना थोड़ा-थोड़ा 
खरचता हूं खुद को 
कैसे थोड़ा-थोड़ा? 

7. अनंदी महतो की कुदाल

एक कविता की ललक पैदा करती है 
अनंदी महतो की कुदाल
जब पड़ती जाती है 
सब्जी के खेत की भुरभुरी मिट्टी पर 

मेहनत से ज्यादा कला है 
अनंदी महतो की कुदाल
कला या जादू?
जादू है 
अनंदी महतो की कुदाल

पौधों की क्यारियों के बीच चलती है कुदाल 
उलट-पुलट होते हैं मिट्टी के टुकड़े 
कब पड़ जाती है उनपर उल्टी कुदाल
कब मिट्टी को खींच लेती है कुदाल 
और कब अचानक 
बेतरतीब बिछी मिट्टी
यहां से वहां तक 
सजी दिखती है पौधों की जड़ों में
खाली टांगों वाले बच्चों को 
झट से पहना दी गई हो भूरी पेंट जैसे –
फरफराते हरे शर्ट के नीचे 

जैसे पौधों को बना दिया गया हो फूल
जैसे बिखरे शब्दों से बना दी गई हो कविता 
कुदाल चलाता है अनंदी महतो या कलम?

पूरी धरती पर ऐसे ही सिरजन करते हैं 
कितने कितने अनंदी महतो 
मटमैले, झुर्रियाते चेहरे वाले अनंदी महतो

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