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Travelogue: रश्मि शर्मा स्वभावतः कवि हैं. यह कहते हुए ध्यान है कि उनकी कहानियां भी चर्चा में रही हैं, लेकिन जब उनकी कहानियों से आप गुजरेंगे तो उनकी शैली, उनकी वर्णनात्मकता, उनकी भाषा में आपको कवित्त के गुण दिखेंगे. यही बात उनके इस पांचवीं किताब 'झारखंड से लद्दाख' के बारे में भी कही जा सकती है.
डीएनए हिंदी: एक सवाल मन में बार-बार उठता रहा है कि किसी यात्रा संस्मरण या यात्रा वृतांत को पढ़कर क्या हासिल होगा? क्यों किसी के निजी संस्मरण पढ़े जाएं, लेकिन जब रश्मि शर्मा की पुस्तक 'झारखंड से लद्दाख' पढ़ा तो यह बात समझ में आई कि यात्रा संस्मरण में आप सिर्फ किसी के निजी अनुभव नहीं पढ़ते, अगर लिखने वाला सजग है तो उस यात्रा में आए विभिन्न पड़ावों के विस्तार तक भी जाते हैं, क्षेत्र विशेष की विशेषताओं से परिचित होते हैं, भौगोलिक और प्राकृतिक स्थितियों की जानकारी से लैस होते हैं और सबसे खास बात कि वहां के खान-पान, रहन-सहन, कला-संस्कृति और पर्व-त्योहारों से भी रू-ब-रू होते हैं.
रश्मि शर्मा स्वभाव से कवि हैं, हालांकि यह कहते हुए ध्यान है कि उनकी कहानियां भी चर्चा में रही हैं, लेकिन जब उनकी कहानियों से आप गुजरेंगे तो उनकी शैली, उनकी वर्णनात्मकता, उनकी भाषा में आपको कवित्त के गुण दिखेंगे. यही बात उनके इस पांचवीं किताब के बारे में भी कही जा सकती है. रश्मि शर्मा की कविताओं के अब तक 3 संग्रह ( 'नदी को सोचने दो', 'मन हुआ पलाश' और 'वक्त की अलगनी पर') प्रकाशित हो चुके हैं, कहानियों का संग्रह 'बंद कोठरी का दरवाजा' के नाम से आया है और यात्रा वृतांत के रूप में पांचवां संग्रह 'झारखंड से लद्दाख' है. इन यात्रा संस्मरणों में झारखंडी समाज और जीवन की झलक तो मिलती ही है, इसे समझने और समझाने की बेचैनी भी दिखाई पड़ती है.
1889 में आधिकारिक नाम राँची
इस संग्रह में झारखंड की राजधानी रांची को लेकर रश्मि ने जो ब्योरा जुटाया है और उसे जिस जीवंतता के साथ लिखा है, उससे आप रांची के इतिहास के करीब भी जाते हैं. रांची में रहनेवाले अधिसंख्य युवाओं को नहीं पता होगा कि 1840 से पहले रांची नाम की कोई जगह ही नहीं थी. 1834 में कैप्टन विलकिंसन ने जिला हेड क्वॉर्टर लोहरदगा से उठाकर रांची में बना लिया. चूंकि विलकिंसन ने इसे बसाया था, तो उन्हीं के नाम के पिछले हिस्से पर इसका पहला नाम किसनुपुर पड़ा. बाद के दिनों में 'रिंची' या 'आरंची' के नाम से यह जाना गया और इसी नाम से उसका नाम रांची के रूप में विकसित हुआ. आधिकारिक रूप से 1899 में इस शहर को 'राँची' नाम मिला. रांची शहर को लेकर ऐसे ढेर सारे रोचक प्रसंग आपको इस पहली टिप्पणी में मिलेंगे. फिर इसके बाद रश्मि आपको झारखंड के अलग-अलग इलाकों में अपनी शोधों और यात्राओं के साथ लेती चलेंगी.
प्रकृति का आनंद
रश्मि की वर्णनात्मकता का एक आनंद प्रकृति से भी जुड़ता है. वे चाहे झारखंड की चर्चा कर रही हों या लद्दाख की, उनके वर्णन में प्रकृति हर वक्त मौजूद रहती है. नदी, पहाड़, झरने-नाले, लोग, रहन-सहन, खान-पान और स्थानीय बोली उनके वृतांत में सहज रूप से आते जाते हैं. इन संस्मरणों को पढ़ते हुए आप भूल जाएंगे कि कुछ पढ़ रहे हैं, आपको लगेगा कि आप देख रहे हैं. यह रश्मि के लेखन का वह कौशल है, जो उन्हें विशिष्ट बनाता है. भाषा की यह दृश्यात्मकता उनकी कविता और कहानियों में भी देखने को मिलेगी.
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गरुड़पीढ़ी गांव का लदनापीढ़ी
अपनी तीसरी टिप्पणी में रश्मि हमें गरुड़पीढ़ी के रास्ते पर ले चलती हैं, जो रांची के नामकुम से महज 7-8 किलोमीटर की दूरी पर है. लेकिन इस रास्ते जाते हुए वे हमें लदनापीढ़ी लिए चलती हैं. वे लिखती हैं 'शहर से ज्यादा दूर नहीं, करीब 15 किलोमीटर की दूरी पर है गांव. मगर पूरी तरह शहर से कटा हुआ. गाय-बैल चराते बच्चे, खेत-खलिहान में काम करती स्त्रियां और पेड़ के नीचे चौपाल लगाते ग्रामीण. गांव के बीच तालाब में एक औरत बत्तखों के साथ डुबकी लगाती नजर आई मुझे. मैंने पूछा- ‘तालाब में तैर रही हैं आप? जवाब मिला- घोंघी पकड़ऽथिऔउ. मतलब तालाब में डुबकी मार कर वह पानी से घोंघी पकड़ रही है. कहते हैं कि घोंघी का मांस बहुत स्वादिष्ट होता है और इससे आंखों की रोशनी भी बढ़ती है. कुछ बच्चे बकरियां चरा रहे थे. कुछ ग्रामीण औरतें सामान भरे थैले को सिर पर रखे आराम से सड़कों पर चल रही थीं. वहां कुछ देर रहने के बाद हमलोग निकले गरुड़पीढ़ी गांव के लिए. गरुड़पीढी गांव की आबादी 500 के आसपास है. करीब 115 घर होंगे वहां. यहां मुंडा समुदाय के लोग रहते हैं. राजधानी के इतने करीब होने के बाद भी वहां बिजली नहीं पहुंची है. यह विकास की बानगी है कि राजधानी रांची से बेहद करीब होते हुए भी यह गांव बुनियादी सुविधाओं से वंचित है. हमें रास्ते में एक नदी मिली, जहां औरतें कपड़े धो रही थीं. पक्की सड़क थी. सड़क के दोनों तरफ घने पेड़ थे. पलाश का मौसम था इसलिए देखकर लग रहा था जंगल में आग लग गई है. दूर पहाड़ और पास में हरियाली. बहुत खूबसूरत दृश्य था.'
विकास यात्रा की पड़ताल
रश्मि अपने इस संग्रह में सिर्फ जगहों के बारे में नहीं बतातीं, सिर्फ प्रकृति की चर्चा ही नहीं करतीं, बल्कि इलाकों में हुए विकास पर भी पैनी नजर रखती हैं. लोकबोलियों का स्वाद लेतीं रश्मि अपने पाठकों का ध्यान भी रखती हैं, इसलिए जो संवाद स्थानीय बोली में पाठक बोलते हैं उसका मतलब रश्मि हिंदी में लिखना नहीं भूलतीं.
झारखंड का सामाजिक और भौगोलिक परिवेश
मॉनसून में हिरनी फॉल, पोड़ाहाट और चक्रधरपुर के अपने सफर पर विस्तार से चर्चा करती हुई रश्मि हमें गेतलसूद के किनारे भी लिए चलती हैं. वहां के रमणीय दृश्यों और वन की खूबियों से हमें अवगत कराती हैं. वे बताती हैं कि साल वृक्ष की लकड़ियां कितनी मजबूत होती हैं, जो गेतलसूत के रास्ते के दोनों तरफ खूब दिखती हैं. इस संग्रह में रश्मि ने झारखंड की खूबसूरती का बखान खूब भावविभोर होकर किया है. यहां के जलप्रपातों हुंडरू, जोन्हा, दशम, लोधा, हिरनी, पंचाघाघ और सीताफॉल की भी चर्चा करती हैं. नेतरहाट के सूर्योदय और सूर्यास्त की चर्चा करती हुई वह नेतरहाट स्कूल के उस वैभव को भी याद करती हैं, जो बताया करते हैं कि अविभाजित बिहार के दौर में होने वाली मैट्रिक परीक्षा में यहां के छात्र ही बाजी मारा करते थे. इसके साथ ही रश्मि यह भी बताती हैं कि इस जगह का नाम नेतरहाट क्यों पड़ा. उन्होंने लिखा है 'नेतुर का अर्थ 'बांस' होता है और हातु यानी 'हाट'. इन दोनों को मिलाकर बना नेतरहाट.' इसी तरह वह हमें मैकलुस्कीगंज की भी यात्रा कराती हैं. सोहराई पेंटिंग के बारे में विस्तार से बतलाती हैं. कहना चाहिए कि रश्मि शर्मा के इस संग्रह के पहले हिस्से को पढ़कर आप झारखंड के कई हिस्सों के सामाजिक और भौगोलिक परिवेश को करीब से समझ सकेंगे.
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लद्दाख पहुंचने के पहले का रोमांच
अगस्त 2019 में भारतीय संसद ने जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 पारित किया. इसके बाद 31 अक्टूबर 2019 को लद्दाख केन्द्रशासित प्रदेश बन गया. लेकिन रश्मि ने लद्दाख की यात्रा तब की थी, जब यह केंद्रशासित प्रदेश नहीं बना था. उन्होंने लद्दाख के सामरिक महत्व को रेखांकित करते हुए अपनी हवाई यात्रा के रोमांचक अनुभव से इस खंड की शुरुआत की है. उन्होंने लिखा 'जब हवाई जहाज में यह बताया गया कि हम हिमालय शृंखलाओं के ऊपर उड़ रहे हैं तो सभी लोग खिड़की से नीचे झांकने लगे. अदभुत नजारे ने मन मोह लिया हमारा. ऊपर नीला आसमान...हमारे नीचे सफेद रूई जैसे बादल और उसके नीचे बर्फ से आच्छाादित पहाड़. वाह... हम सब झांक रहे थे नीचे. कोई मोबाइल से तस्वीरें ले रहा था तो कोई कैमरे से. नीचे पतली सी नदी, जैसे सर्प कोई बलखाता चल रहा हो. जरा आगे बढ़ने पर भूरे-काले पहाड़ नजर आए. ये क्रमश: जांस्कार और लद्दाख की शृंखलाएं हैं. भूरे पहाड़ों पर किसी ने सफेदी पोत दी हो, ऐसा लग रहा था. उसके ऊपर घने बादल. कहीं बादलों की छाया से पहाड़ का रंग बदल रहा था तो कहीं इतने घने बादल कि कुछ दिखाई न दे.'
देशज शब्दावलियों से परिचय
'कुशेक बकुला रिनपोछे टर्मिनल, लेह' एयरपोर्ट पर उतरते ही रश्मि शर्मा का ध्यान वहां की बोलियों पर चला जाता है. वे बताती हैं कि उनके ड्राइवर जिमी ने उन्हें 'जुले' कहा. यह 'जुले' यहां का नमस्कार है. इसके बाद 'गुंचा' के बारे में बताती हुई रश्मि प्रकृति में खोती चली जाती हैं. उनके सौंदर्य वर्णन में पाठक भी खो जाते हैं. रश्मि उन्हें अपने संग शांति स्तूप की आकर्षक शाम और वहां के बाजार का परिचय देती हुई खारदुंगला भी लिए चलती हैं. श्योक नदी, नुब्रा घाटी, दिस्कत मठ घुमाती हुई नौमंजिला लेह महल के भी दर्शन कराती हैं. इस दूसरे खंड में भी पहले वाली रोचकता बरकरार है. थ्री इडियट वाले रैंचो के स्कूल भी आपको इस पुस्तक के जरिए देखने को मिलेगा. कुल मिलाकर यह रश्मि की यह पुस्तक रोचकता से भरपूर है, विस्तार से हुआ वर्णन आपको ऊबने नहीं देता, बल्कि एक सांस में पढ़ते जाने को प्रेरित करता है.
यात्रा वृतांत : झारखंड से लद्दाख
लेखक : रश्मि शर्मा
प्रकाशक : नमस्कार बुक्स
कीमत : 300 रुपए
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