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Reader's Review: 'शहर से दस किलोमीटर' दूर बसी बस्ती को इस बार नहीं कर सकेंगे अनदेखा

Reader's Review: वरिष्ठ रचनाकार नीलेश रघुवंशी के ताजा उपन्यास 'शहर से दस किलोमीटर' पर पाठकीय टिप्पणी की हैं कथाकार विनीता बाडमेरा ने. राजस्थान के अजमेर की रहनेवाली विनीता बाडमेरा खुद कहानीकार हैं. उनकी कहानियों के संग्रह का नाम है 'एक बार, आख़िरी बार'. वे एक संवेदनशील कवि भी हैं.

Reader's Review: 'शहर �से दस किलोमीटर' दूर बसी बस्ती को इस बार नहीं कर सकेंगे अनदेखा

नीलेश रघुवंशी का उपन्यास 'शहर से दस किलोमीटर' पर पाठकीय टिप्पणी.

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डीएनए हिंदी : मध्य प्रदेश के भोपाल में रहनेवाली वरिष्ठ रचनाकार नीलेश रघुवंशी का नया उपन्यास है 'शहर से दस किलोमीटर'. इससे पहले उनका 'एक कस्बे के नोट्स' उपन्यास पाठकों के बीच चर्चित रहा है. कविताओं से शुरुआत करने वाली नीलेश रघुवंशी के तीन काव्य संग्रह हैं - 'घर-निकासी', 'पानी का स्वाद' और 'अंतिम पंक्ति में'. नीलेश के ताजा उपन्यास 'शहर से दस किलोमीटर' पर पाठकीय टिप्पणी की हैं कथाकार विनीता बाडमेरा ने. राजस्थान के अजमेर की रहनेवाली विनीता बाडमेरा के कहानी संग्रह का नाम है 'एक बार, आख़िरी बार'. तो पढ़ें विनीता बाडमेरा की टिप्पणी.
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल को झीलों का शहर कहा जाता है. इसी खूबसूरत भोपाल से दस किलोमीटर दूर एक अनूठी दुनिया है. इस दुनिया को देखने समझने के लिए, उसके पहाड़ी क्षेत्रों पर चढ़ने-उतरने उतरने के लिए, खेतों-खलिहानों में जाने के लिए, तालाबों और पुल की मुंडेर पर ठहरने के लिए किसी दुपहिया या चौपहिया वाहन की भला आवश्यकता कहां है? फिर कमबख्त ये वाहन तो सिर्फ और सिर्फ सरसरी नजर भर देखने  देते हैं उस दुनिया को. 
वह दुनिया आलीशान कोठियों, महलों और बंगलों में रईस शौक से जीनेवालों की दुनिया नहीं है. वह दुनिया बड़े-बड़े दावे करनेवाले बड़े लोगों की दुनिया भी नहीं है. वह दुनिया आलीशान मल्टीप्लेक्स ऑफिस में काम करने वाले उनलोगों की दुनिया भी नहीं है, जो अपने बढ़ते काम के तनाव को क्लब और बड़ी पार्टियों से दूर करते हों, वह दुनिया बड़े मिशनरी स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चों की दुनिया भी नहीं है. तो फिर आखिर ये दुनिया किसकी है?

248 पन्ने की दुनिया
यह दुनिया है हमारे उदर पूर्ति करनेवाले कृषक की. यह दुनिया है उनकी जिनकी जमीन न जाने कितनी बार बंजर हो जाती है. यह दुनिया है हमारा पेट भरने वाले गरीब किसान परिवारों की, जो रात-रातभर अपनी आंखों में नींद नहीं, बस जाग लेकर घूमते हैं. और तब कर पाते हैं फसलों की रखवाली. यह दुनिया है फसलों के लिए ऋण लेनेवालों की. यह दुनिया है अपने लिए एक छोटे सी झोपड़ी न बना पाने के दुख की और अस्थायी मकान से खदेड़े जानेवालों की. और इस दुनिया से हमारा परिचय कराता है लेखक नीलेश रघुवंशी का नया उपन्यास 'शहर से दस किलोमीटर'. 248 पन्नों का यह उपन्यास राजकमल से छपकर आया है.

साइकिल यात्रा
तो किसानों और मजदूरों की इस दुनिया में नीलेश रघुवंशी साइकिल से पहुंच जाती हैं. उस साइकिल से जो आज मजदूरों का वाहन बन कर रह गई है. जिसके पहिये की हवा भरने का कोई निश्चित ठिकाना नहीं है क्योंकि गरीब और मजदूरों की सहूलियत की किसको फिक्र. व्यंग्य की बोली बोलूं तो अगर इनकी ही सुविधा का ध्यान रखा जाएगा तो देश की उन्नति और विकास का ध्यान फिर क्या खाक रखा जा सकता है.

गुजरे जमाने की बात
अब के दौर में साइकिल जहां सर्वहारा वर्ग के कहीं आनेजाने का सबसे सस्ता और टिकाऊ साधन है, वहीं दूसरे वर्ग के लोगों के लिए यह बस शरीर को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए विलासिता भरा साधन. यह बात तो अब मध्यवर्गीय परिवार के लिए गुजरे जमाने की बात है कि साइकिल से गिरकर घुटने छिले, खूब हंसी का पात्र बने और दोस्तों को इस मुई साइकिल सिखाते हुए बहुत दूर तक भागे. शहरी मध्यवर्ग में अब तो इस साइकिल को कौन पूछता है भला. 

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आंखों में उम्मीदें
खैर, इस साइकिल के पैडल मारकर मन और मस्तिष्क को साथ लिए नीलेश पहुंचती हैं एक ऐसी दुनिया में जहां जिंदगियां रोती-कलपती हैं अपनी जमीन के लिए. तरसती आंखों से देखती हैं बारिश की राह. कर्ज में हर साल डूबती है उनकी फटेहाल दुनिया. बावजूद उनकी आंखों में उम्मीद के सपने तैरते हैं. ये सपने उन्हें पुचकार कर एक बार और फसल बोने का आग्रह करते हैं. क्योंकि उन्हें भरोसा है उस शक्ति पर, जिसने इस सृष्टि का निर्माण किया है. इसलिए बार-बार कहते हैं उनसे कि जिसकी इच्छा के बिना एक पत्ता तक हिल नहीं सकता तो फिर सूखा, बंजर या लहलहाती फसलें कैसे तुम्हारे हाथ में हो.

स्नेह और सहारे का स्पर्श
लेखक नीलेश पकड़ती हैं हाथ उन कमजोर और टूटे लोगों का और सहलाती है उनकी पीठ, कंधे पर रखती हैं सहारे और सहानूभूति के स्पर्श, इस आश्वासन के साथ कि कभी तो बदलेंगे दिन. लेकिन कहां बदलते हैं उन गरीब किसानों के दिन. वे जीते हैं उन्हीं दिनों को बदलने की आस में और मर-खप जाते हैं न बदल पाने पर.

'भैया मारेगा'
पीड़ा से लबालब इस दुनिया में पहुंची लेखक मिलवाती हैं उनलोगों से जो नवरात्र मनाते हैं, जिन्हें देवी की शक्ति  पर भरोसा है कि वे उबार लेंगी उन्हें हर संकट से. लेकिन इसी उपन्यास में मौजूद भाइयों की बहनें जरा सी चूक होने पर भयभीत होती हैं अपने भाइयों से. जार-जार रोती हैं और साइकिल के पहिए में दुपट्टा फंस जाने पर कहती हैं "भैया मारेगा". आंसू सूखते नहीं, हिचकियां रुकती नहीं.  

सवाल दर सवाल है
"भैया मारेगा" यह पंक्ति पढ़कर हृदय विर्दीण होने लगता है. शोषक और शोषित सामने खड़े हो जाते हैं. आगे की कहानी पढ़ने के लिए हाथ न जाने कितनी देर बाद फिर किताब पकड़ते हैं. क्योंकि अभी बहुत से सवाल बाकी हैं, अभी तो उपन्यास का आधा हिस्सा ही सामने आया है. पात्रों की कई परतें खुलनी हैं, जीवन के कई रंग देखने बाकी हैं, बहुत से सवालों के जवाब मिलने हैं, बहुत कुछ है जो समझना और जानना है इस उपन्यास के माध्यम से.

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दूसरों की अनदेखी
शहर से दस किलोमीटर के दायरे में वह दुनिया भी है, जहां बड़ी-बड़ी कॉलोनियां बसी हैं. इन कॉलोनी में लोग आराम से रह रहे हैं, स्त्रियां अपनी नौकरी पर जा रही हैं क्योंकि उनके घरों में नौकरी करने वालियां और वाले घरेलू सहायिका और सहायक ईमानदार हैं. काम से जी नहीं चुराते. मन खराब चाहे कितना भी हो पर मेमसाब का घर अच्छा दिखे, इसके लिए वे जी-जान से जुटे हैं. वहां बच्चे सुरक्षित हैं, क्योंकि उनकी देखभाल करनेवालों ने अपने सपने निर्वासित कर दिए हैं. अपनी मेमसाब के लिए खुद को झोंक देनेवाले ये लोग अपने 'नेचर कॉल' को भी घंटों स्थगित कर देते हैं, पेट दबाकर अपना दर्द जब्त करते रहते हैं मगर मेमसाब से कैसे कहें कि "दीदी आपके घर में हल्के हो जाएं?"

आत्ममुग्ध लोग
इस तरह की न जाने कितनी परेशानी से यह उपन्यास हमें रू-ब-रू कराता है. हमें इस उपन्यास से गुजरते हुए बार बार ध्यान जाता है कि हम इतने आत्ममुग्ध हो चुके हैं और हमने अपना नकली स्टैंडर्ड इतना ऊंचा कर लिया है कि हमें हमारे सहायकों की परेशानियों का अहसास ही नहीं रहता. हम अपने में खोए लोग हैं. मुझे यह पढ़कर एकबारगी लगा कि हम सबमें क्या इतनी-सी मानवता नहीं बची रह गई है क्या.

'भौत सीधा है'
यह वही साइकिल है जो दिखाती है कि घर से बाहर न निकलने वाली औरतों की दुनिया सिर्फ उनके घर तक होती है. जरा-सी सहानुभूति पाते ही छलछला जाती हैं आंखें, रात-रात नींद न आने पर भी ये स्त्रियां अपने पति और बेटे से शिकायत नहीं करतीं. उनका नाम आने पर "भौत सीधा है" कह बस दीवार की तरफ देखती हैं.

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थाली की चिंता
और इस दुनिया में वे मध्यवर्ग भी है जो अपनी जरूरतों का रोना रो नहीं सकता, जो समाज और परिवार में इज्जत ढकते-ढपाते खुद टूट-फूट जाता है. फिर वह कभी अपने साथियों से सुख-दुख बांटता, ठहाके लगाता चाय की टपरी पर खड़ा हो जाता है. बच्चों की छोटी-छोटी ख्वाहिश न पूरी करने पर उदासी से घिर जाता है. लेकिन उसे मालूम है बहुत छोटी-छोटी ही तो हैं उनकी ख्वाहिशें और उन ख्वाहिशों को पूरा सिर्फ उनके परिश्रम से ही पूरा किया जा सकता है और जब सब कुछ सहते हुए भी कुछ सहा नहीं जाता तो आहिस्ता से कहता है यह उदास मन-
"क्या बताएं, यह समझिए हर दिन थाली से एक चीज कम होती जा रही है."

चरित्र और परिवेश की बारीक बुनावट
नीलेश रघुवंशी का यह उपन्यास दृश्यात्मकता लिए हुए है. आसान शब्दों में विवरण इतना सटीक है कि पढ़ते हुए खेत, तालाब, पुल, पार्क, अस्पताल और ट्रेन तक पाठक पहुंच जाता है. पात्रों की गहन पीड़ा का भी साक्षी होता है और उनकी हंसी में खुद को शरीक भी पाता है. साइकिल के पहिए की चूं-चूं की आवाज पाठकों का पीछा करती है. वह उपन्यास से गुजरते हुए साइकिल भी चलाता है और उसकी चेन उतरने पर उसकी मरम्मत करता अपने बचपन में जा पहुंचता है.

भाषा बेहद सरल 
भाषा शैली अपनी सी है, बिल्कुल परिवेश के अनुरूप. बहुत गंभीर होकर पढ़ना या शब्दों के अर्थ खंगालने के लिए शब्दकोश संभालना पड़े यह बात कहीं सामने आती नहीं दिखती, इसलिए ही एक बार जो उपन्यास हाथ में आ जाए तो फिर उसे पूरा किए बिना कहीं चैन नहीं पड़ता. बहरहाल, नीलेश रघुवंशी ने साइकिल के सहारे दस किलोमीटर दूर के सफर में एक ऐसी दुनिया की याद दिलाई है, जिसे हम नजरअंदाज करने का जतन करते रहे हैं, पहचान कर भी पहचानने से इनकार करते रहे हैं . उपन्यास के पात्रों के जीवन में बदलाव आएगा या नहीं यह तो पता नहीं, लेकिन इसे पढ़कर हम थोड़े और मनुष्य बन जाएं - यह बड़ी बात है.

उपन्यास के कुछ अंश जो उमड़ते-घुमड़ते मन को ठहर कर समझने के लिए वक्त देने को कहते हैं -
1. बहुत ज्यादा नया आने से सब कुछ खत्म फिर भी नहीं होता. जिसे बचना होता है, वो बच ही जाता है. (पृष्ठ संख्या -19)
2. जीत की इच्छा मनुष्य को जितना उदात्त बनाती है, उतना ही या उससे ज्यादा कई बार बौना भी बना देती है. (पृष्ठ संख्या -22)
3. कई बार जहां आपका देखना बंद होता है. दुनिया वहीं से शुरू होती है. (पृष्ठ संख्या -121)
4. जब हम अपने सपने पूरे करने निकलते हैं, तो हमारा सामना सिर्फ पहाड़ों से नहीं, छोटे-छोटे टीलों से भी होता है. (पृष्ठ संख्या -97)
5. किसी से किसी का स्वभाव कैसे छीना जा सकता है? शेर दहाड़ना नहीं छोड़ सकता और बकरी मिमियाना. लोमड़ी से भलमनसाहत की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? कुत्ते को कैसे कह सकते हैं कि बिना वजह मत भौंको. ये बात समझ से परे है कि जिस तरह हमेशा भौंकने की जरूरत नहीं होती है, उसी तरह हमेशा दुम हिलाने की भी जरूरत नहीं होती है. बिल्ली को कैसे समझाएंगे कि दूध पीते हुए जब तुम आंखें बंद करती हो, तो यह मत समझो कि बाकी सबकी आंखें भी बंद हैं. चिंदी पाने पर चूहे की खुशी कैसे रोकी जा सकती है? चाहे कुछ हो जाए, सांप डंसना नहीं छोड़ सकता. हिरन कुलांचे भरता और पंछी को उड़ान भरने से रोकोगे, तो वो दम तोड़ देंगे. ( पृष्ठ संख्या - 156)

अस्तु: अपने-अपने जीवन को जीती ऐसी जिंदगियां हैं जो चुप रह कर बोलती हैं और बोलती हुई मौन हो जाती हैं. उनके मौन और बोलने को पढ़ने के लिए पढ़ना चाहिए नीलेश रघुवंशी का उपन्यास "शहर से दस किलोमीटर".

उपन्यास - शहर से दस किलोमीटर 
लेखक - नीलेश रघुवंशी
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स
कीमत - 250 रुपए

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