भारत
अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने डॉ. अंबेडकर (Baba Saheb Ambedkar) को ‘सिंबल ऑफ नॉलेज’ यानी ‘ज्ञान के प्रतीक’ के रूप में नवाजा था.
-डॉ. सुनील कुमार ‘सुमन’
दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा (Barack Obama) ने जब बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर (Baba Saheb Ambedkar) को ‘सिंबल ऑफ नॉलेज’ (Simble of Knowledge) यानी ‘ज्ञान के प्रतीक’ के रूप में नवाजा था तो पूरी दुनिया में यह चर्चा का विषय बन गया था. इसके पूर्व कोलंबिया विश्वविद्यालय ने अपनी स्थापना के 250 साल पूरे होने पर अपने ऐसे पूर्व विद्यार्थियों की एक सूची तैयार करवाई थी जिन्होंने वहां से शिक्षा लेकर ज्ञान-विज्ञान, समाज-संस्कृति और राजनीति के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर युगांतकारी काम किया था. इस सूची में सर्वसम्मति से पहले स्थान पर भारत के डॉ. बी. आर. अंबेडकर को रखा गया. उसी विश्वविद्यालय के ऐतिहासिक महत्व के पुस्तकालय-द्वार पर डॉ अंबेडकर की प्रतिमा काफी पहले से स्थापित है. इन तीनों प्रसंगों-उपलब्धियों को भारत के सवर्णवादी वर्चस्वधारा के बौद्धिक जगत और मीडिया ने कभी महत्व नहीं दिया. हां, यदि डॉ. अंबेडकर किसी सवर्ण जाति से होते तो इन उपलब्धियों पर यह देश फूले न समाता. बहरहाल यही यहां के जातिवादी समाज का छोटापन है और यही बाबासाहब अंबेडकर के व्यक्तित्व की विराटता है. भारत के बीमार मनुवादी समाज ने डॉ. अंबेडकर को जितना ढंकने-छुपाने और उपेक्षित करने की कोशिश की, वे उतने ही तेज़ के साथ चमकते हुए दुनिया के पटल पर सामने आए और अमेरिका के राष्ट्रपति को उन्हें ‘ज्ञान का प्रतीक’ बताने में गर्व का अनुभव हुआ.
आखिर डॉ. अंबेडकर के व्यक्तित्व और कृतित्व में ऐसी कौन-सी खास बात थी कि उन्हें ‘ज्ञान का प्रतीक’ कहा गया? ज्ञान का मतलब बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ नहीं होतीं. दोनों में फ़र्क होता है. ज्ञान हमें मुक्त करता है- उन तमाम सारी सड़ी-गली मान्यताओं, अंधविश्वासों, कर्मकांडों और जड़ताओं से जो समाज में गैर-बराबरी की मूल कारण हैं. ज्ञान हमें वैज्ञानिक तरीके से सोचने-समझने की शक्ति देता है. यह ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त को स्थापित करता है, जो भारत की मूलनिवासी संस्कृति की आत्मा भी रही है. ज्ञान, तार्किकता और बौद्धिकता की ज़मीन पर एक स्वस्थ एवं समतामूलक समाज बनाने का रास्ता दिखलाता है. ज़ाहिर है कि किसी भी समाज में ज्ञान की भूमिका सबसे बड़ी होती है. इसके बिना हम एक लोकतांत्रिक देश की परिकल्पना हरगिज नहीं कर सकते. भारत में आर्यों के आगमन से पहले ऐसा ही समाज था. आर्यों ने यहां के मूलनिवासियों को छल-कपट और धूर्तता से पराजित करके पूरे समाज को ईश्वरीय मोह-माया, झूठ-फरेब और उसके कर्मकांड के कीचड़ में डूबो दिया, जिससे यह देश आज तक मुक्त नहीं हो पाया है. इसके चलते यहां का बहुजन समाज अभी भी तमाम तरह की गुलामियों को झेलने के लिए अभिशप्त है. आधुनिक भारत में इस शोषणकारी ब्राह्मणी तिलस्म को तोड़ने का सबसे बड़ा काम किसी ने किया तो वे हैं डॉ. भीमराव अंबेडकर. डॉ. अंबेडकर ने न सिर्फ सदियों की इस दासता की जड़ें खोद डालीं बल्कि उसकी जगह एक बेहतर समाज और सुंदर-स्वस्थ देश बनाने का मार्ग भी प्रशस्त किया. बराक ओबामा और अब पूरी दुनिया डॉ. अंबेडकर को ‘ज्ञान का प्रतीक’ इन्हीं कारणों से कहती-मानती है.
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अब सवाल यह है कि ज्ञान डॉ. अंबेडकर के जीवन का हिस्सा कैसे बना? दरअसल ज्ञान की परंपरा श्रम से आती है यानी जिस समाज में श्रमण संस्कृति रही हो, ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसी समाज में आगे बढ़ता है. भारत का आदिवासी समाज हो, शूद्र (ओबीसी) समाज हो या दलित समुदाय, मेहनत ही इन समुदायों की पहचान रही है. आदिवासियों के पास तो प्राकृतिक ज्ञान-विज्ञान का भंडार ही रहा है. अकारण नहीं है कि बहुजन समुदायों से आने वाले महापुरुषों ने ही सामाजिक-सांस्कृतिक विसंगतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाई और समतामूलक समाज-व्यवस्था बनाने का विकल्प दिया. दूसरी तरफ ब्राह्मणी समाज में श्रम की परंपरा कभी नहीं रही इसलिए इनके यहाँ कर्मकांड और काल्पनिक कथा-कहानियाँ तो खूब मिलती हैं लेकिन वैज्ञानिक काम और लेखन नहीं मिलता. इसी कारण भारत के सवर्ण समाज ने दुनिया को आविष्कार और बौद्धिकता के नाम पर कुछ नहीं दिया. इनके यहां विद्या की देवी रही लेकिन बहुसंख्यक जनता अशिक्षित रही और जो शिक्षित रहे, वे ज्ञानहीन रहे. धन की देवी रही लेकिन यहां के बहुसंख्यक लोग सदियों से कंगाल बने रहे. शक्ति की देवी रही लेकिन यह देश लगातार गुलाम होता रहा. वस्तुतः मनुवादी एवं वर्चस्ववादी लोग खुद अज्ञानी थे इसलिए उन्होंने असमानता, शोषण और जड़ताएं तो खूब फैलाईं लेकिन ज्ञान नहीं. वहीं यहां के अनार्य समाज में तथागत गौतम बुद्ध, कबीर-रविदास, ज्योतिबा-सावित्रीबाई फूले, फातिमा शेख, शाहूजी महाराज, रामास्वामी पेरियार, गाडगे बाबा, अछूतानन्द, नारायण गुरु, बिरसा मुंडा, तिलका बाबा जैसे अनेक परिवर्तनकामी महापुरुषों की एक पूरी समृद्ध परंपरा दिखती है.
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आधुनिक भारत में इन सभी बहुजन महानायकों का सम्मिलित रूप हमें बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर में मिलता है. डॉ अंबेडकर के पास विदेश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से प्राप्त शिक्षा तो थी ही, उसके साथ-साथ अनुभवजन्य व्यावहारिक ज्ञान की भी प्रचुरता थी. डॉ. अंबेडकर के विशाल लेखन और क्रांतिकारी कार्यों का गहनता से अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि भारतीय समाज-संस्कृति और इतिहास की उन्हें गहरी समझ थी. वे गज़ब के दूरद्रष्टा थे. यही वजह है कि उन्होंने व्यापक बहुजन समाज की मुक्ति का रास्ता खुद तैयार किया, जिसपर चलकर आज वंचित तबका हर क्षेत्र में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज़ कराने लगा है. डॉ. अंबेडकर के आंदोलन के मूल में आत्मसम्मान और मानवीय अस्मिता की भावना प्रबल थी. शुरुआती दौर के उनके आंदोलन को देखें तो चाहे वह महाड़ सत्याग्रह हो अथवा कालाराम मंदिर का आंदोलन, सब जगह यही संवेदना दिखती है. मुक्ति की, आज़ादी की, मानवाधिकार की, समानता की और जाति विशेष के एकाधिकारों के खात्मे की. महाड़ सत्याग्रह के दौरान उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘हमारे आंदोलन का उद्देश्य सिर्फ यह नहीं है कि जो निर्योग्यताएँ हम पर थोपी गई हैं, वे हट जाएं, बल्कि हम सामाजिक क्रांति चाहते हैं, एक ऐसी क्रांति, जिसमें नागरिक अधिकारों के मामले में आदमी और आदमी के बीच कोई भेद न किया जाए, सभी मनुष्यों को उच्चतम स्थान तक पहुँचने के लिए समान अवसर प्राप्त हों और जाति की कोई बाधा न रहे.’’ (सं.-सुभाष चंद्र, अंबेडकर से दोस्ती, पृष्ट सं.-12)
जिस समय भारत में कम्युनिस्ट पार्टी को ढंग से कोई जानता तक नहीं था, उस जमाने में बाबासाहेब ज़ोर देकर मजदूरों की अहमियत को रेखांकित करते हैं. उन्होंने ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ बनाई. मजदूरों के अधिकारों को लेकर बहुत काम किया तथा लिखा-पढ़ा व बोला भी। यह अलग बात है कि भारत के ‘वामपंथी’ अपने जातिगत पूर्वाग्रहों के चलते डॉ. अंबेडकर का कभी नाम भी लेना पसंद नहीं करते जबकि डॉ. अंबेडकर देश की सत्ता को मजदूरों के हाथ में सौंपने की अहमियत बताते हैं. यह कोई छोटी बात नहीं है. वे कहते हैं कि ‘‘देश को नेतृत्व चाहिए और प्रश्न यह है कि नेतृत्व कौन देगा. मैं यह कहने का साहस कर सकता हूं कि श्रमिक देश को वह नेतृत्व दे सकता है जिसकी उसे आवश्यकता है.’’ (उपर्युक्त, पृष्ठ सं.-204) डॉ. अंबेडकर इसके कारणों को समझाते हुए बताते हैं कि अभिजात वर्ग के यहाँ स्वतंत्र चिंतन की संभावना नहीं है यद्यपि आदर्शवाद उनके लिए संभव हो सकता है. इस बारे में मध्य वर्ग की अपनी दिक्कतें हैं तो केवल मज़दूर वर्ग ही है जिसके लिए आदर्शवाद और स्वतंत्र चिंतन संभव है.
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यह सर्वविदित है कि डॉ. अंबेडकर फ्रांस की क्रांति से बहुत ज्यादा प्रभावित थे. उनके लेखन-चिंतन, आंदोलन और कार्यों पर इस क्रांति का प्रभाव स्पष्ट दिखता है. समानता, स्वतंत्रता और बंधुता का सूत्र उन्होंने इसी क्रांति से लिया था. 1789 में हुई फ्रेंच क्रांति में घोषणा पत्र जारी किया गया था. डॉ. अंबेडकर 1927 में जब महाड़ सत्याग्रह करते हैं तो उसमें भी घोषणा पत्र जारी किया जाता है. इस घोषणा पत्र में देश की सत्ता पर जनता की मजबूत पकड़ को जरूरी बताया जाता है. डॉ. अंबेडकर बहुजन जनता से ज़ोर देकर कहते हैं कि ‘‘यदि हमारे वर्ग को संसदीय लोकतंत्र में रहना है तो उसे अपने अनुकूल बनाने के लिए प्रयास करने होंगे. उसे सरकार पर न केवल अपना दबाव बनाना होगा बल्कि सरकार पर कब्जा भी करना होगा.’’ (Dr Babasaheb Ambedkar Writings and Speeches, Vol.no.-10, Page-110) दरअसल महाड़ सत्याग्रह के अपने ऐतिहासिक भाषण में डॉ. अंबेडकर भारत में लोकतंत्र की अवधारणा और उसके सफल होने के तरीकों के संबंध में प्रखरता के साथ अपनी बात रखते हैं. समय बीतने के साथ आगे चलकर उन्हें यह एहसास हो जाता है कि केवल इस तरह की लड़ाइयों से बड़ा परिवर्तन नहीं आ सकता इसलिए डॉ. अंबेडकर अब राजनीतिक सत्ता के महत्व को गहराई से जानने-समझने लगते हैं और सत्ता में हिस्सेदारी का आंदोलन छेड़ देते हैं. उनके लिए अब बहुजन प्रतिनिधित्व का सवाल सबसे अहम हो जाता है. वे बार-बार गांधी जी से टकराने से भी पीछे नहीं हटते और अपने वंचित समाज के मुद्दों को प्रमुखता से उठाते रहते हैं। इन सबका सूक्ष्मता से मूल्यांकन करने पर पता चलता है कि डॉ. अंबेडकर अपने मिशन-आंदोलन को लेकर कितने व्यवस्थित, योजनाबद्ध, विज़नरी और प्रतिबद्ध थे। उन्हें पता था कि मुक्ति का यह संघर्ष लंबा चलने वाला है इसलिए एक व्यवस्थित वैचारिक रास्ता तैयार करना बहुत जरूरी है और यह काम उन्होंने बखूबी करके दिखाया. हालांकि इसके लिए उन्हें बहुत से झंझावात झेलने पड़े लेकिन वे उसी जुनून, साहस और जज़्बे के साथ हमेशा डटे रहे.
उन्हें जब संविधान-निर्माण की ज़िम्मेदारी दी गई तो वहां उन्होंने भारत के समस्त वंचित जमात, जिनमें धार्मिक अल्पसंख्यक और स्त्रियां भी शामिल हैं, के हितों का सबसे ज्यादा ख्याल रखा. लेकिन किसी गैर-वंचित वर्ग या समुदाय का उन्होंने ज़रा भी नुकसान होने नहीं दिया, यह संविधान की सबसे महत्वपूर्ण बात थी. यदि इस देश का संविधान किसी सवर्ण व्यक्ति के नेतृत्व में बनाया गया होता तो ऐसा हरगिज नहीं हो पाता, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए. लोकतंत्र में संख्या बल बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है. अशिक्षित-गरीब समस्त बहुजन समाज को वोट का अधिकार दिलाकर डॉ. अंबेडकर ने अपना ऐतिहासिक योगदान दिया. उसके पूर्व वे लगातार अपने लोगों को राजनीतिक सत्ता के महत्व को बताते रहे थे. उन्होंने खुद चुनाव लड़ा, भले ही वे हार गए. आशय स्पष्ट है कि बाबासाहेब राजनीतिक सत्ता को ही सारी प्रगति का मूल मानते थे. उन्हें पता था कि भारत जैसे जातिवादी देश में वंचितों का हक़ यहां के मनुवादी लोग आसानी से नहीं देने वाले. इसके लिए उन्होंने तमाम संवैधानिक प्रावधानों की व्यवस्था की.
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‘शिक्षित बनो! संघर्ष करो! संगठित रहो!’ के सूत्र द्वारा डॉ. अंबेडकर की दूरदृष्टि राजनीतिक सत्ता की तरफ ही थी. बार-बार इसको बोलकर वे अपनी वंचित जनता का आह्वान करना चाहते थे कि शिक्षा, संघर्ष और संगठन को माध्यम बनाकर इस देश की बहुजन आबादी, जो कि पहले से ही यहाँ की हुक्मरान कौम रही है, अब संख्या बल के आधार पर सीधा राजनीतिक सत्ता को हासिल करे। यद्यपि मान्यवर कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में खास तौर से डॉ. अंबेडकर की इस सैद्धांतिकी को व्यावहारिक धरातल पर सच साबित करके दिखाया. यह भारतीय इतिहास की कोई सामान्य घटना नहीं थी.
बावजूद इसके अफसोस और दुख की बात है कि मनुवादी व्यवस्था से लड़-भिड़कर डॉ अंबेडकर के अथक प्रयत्नों से प्राप्त संवैधानिक अधिकारों को अब तक यहां का दलित-आदिवासी, ओबीसी, धार्मिक अल्पसंख्यक और महिला समुदाय सही अर्थों में हासिल नहीं कर पाया है. यहां का बहुजन समाज अपनी धार्मिक गुलामी के चलते वोट की कीमत को पहचानने में अब तक असफल रहा है. डॉ. अंबेडकर ने अपने अंतिम समय में बौद्ध धम्म की दीक्षा लेकर ऐतिहासिक सांस्कृतिक क्रांति का सूत्रपात किया था. इसके माध्यम से वे इस देश को प्रबुद्ध भारत बनाना चाहते थे. उनका यह बहुत बड़ा सपना था जो उनके असमय महापरिनिर्वाण के चलते अधूरा रह गया. इसके लिए वंचित समुदाय को अभी बहुत काम करना होगा. अपने मिशन-आंदोलन को और मजबूत करना होगा. उसे गांव-गांव तक पहुंचाना होगा. इसके लिए ज्यादा-से-ज्यादा संख्या में नौजवानों और महिलाओं को आगे आना होगा. उन्हें इस वैचारिक कारवां का नेतृत्व संभालना होगा. बहुजन समाज के अंदर की पितृसत्ता को डॉ. अंबेडकर खतरनाक मानते थे इसलिए एक लड़ाई उसके लिए भी चलती रहनी चाहिए. कुल मिलाकर वंचित जमात को अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक ज़मीन को सुदृढ़ बनाकर राजनीतिक ताकत को खड़ा करना होगा. इसके बाद ही तमाम तरह के शोषण-उत्पीड़न व भेदभाव से मुक्त समानता, स्वतन्त्रता और बंधुता पर आधारित समतामूलक समाज बनाने का सपना सच हो पाएगा. वास्तव में इस बड़े काम को संभव कर दिखाने के बाद इस देश का बहुजन समाज पूरी दुनिया को यह बताने में सफल हो पाएगा कि डॉ अंबेडकर सही मायनों में ‘ज्ञान के प्रतीक’ हैं.
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं.)
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