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Places of Worship Act: प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट क्या है? क्यों धार्मिक स्थलों का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा

इस कानून के तहत 15 अगस्‍त 1947 से पहले मौजूद किसी भी धर्म की उपासना स्‍थल को किसी दूसरे धर्म के उपासना स्‍थल में नहीं बदला जा सकता.

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Places of Worship Act: प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट क्या है? क्यों धार्मिक स्थलों का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा

सुप्रीम कोर्ट 

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डीएनए हिंदीः प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट (Places of Worship Act) यानी पूजा स्थल कानून को लेकर आज फिर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है. 2020 में ही अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर नोटिस होने के बावजूद केन्द्र सरकार ने अभी तक इसे लेकर अपना रुख साफ नहीं किया है. सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं में कहा गया है कि ये एक्ट हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध को मानने वाले लोगों को  अपने धार्मिक स्थलों पर पूजा के अधिकार का दावा करने से रोकता है. आखिर पूरा मामला क्या है, विस्तार से समझते हैं. 

इन याचिकाओं पर होगी सुनवाई
सुप्रीम कोर्ट में देवकीनंदन ठाकुर (Devkinandan Thakur), स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती (Jeetendranand Saraswati), भारतीय जनता पार्टी के पूर्व सांसद चिंतामणि मालवीय (Chintamani Malviya), सेवानिवृत्त सेना अधिकारी अनिल काबोत्रा (Anil Kabotra), अधिवक्ता चंद्रशेखर (Chandra Shekhar) और रुद्र विक्रम सिंह (Rudra Vikram Singh) की ओर से याचिकाएं दाखिल की गई हैं.  

क्या है मामला 
इन याचिकाओं में कहा गया है कि यह कानून समानता, जीने के अधिकार और पूजा के अधिकार का हनन करता है. दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने मार्च  2021 में 1991 के प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट ( पूजा स्थल कानून) की वैधता का परीक्षण करने पर सहमति जताई थी. अदालत ने इस मामले में भारत सरकार को नोटिस जारी कर  उसका जवाब मांगा था. बीजेपी की ओर से वकील अश्विनी उपाध्याय ने इस एक्ट को खत्म किए जाने को लेकर याचिका दाखिल की है.  

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क्या है प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट?
इस कानून को 1991 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार के समय बनाया गया था. इस कानून के तहत 15 अगस्‍त 1947 से पहले मौजूद किसी भी धर्म की उपासना स्‍थल को किसी दूसरे धर्म के उपासना स्‍थल में नहीं बदला जा सकता. इस कानून में कहा गया कि अगर कोई ऐसा करता है तो उसे जेल भेजा जा सकता है. कानून के मुताबिक आजादी के समय जो धार्मिक स्थल जैसा था वैसा ही रहेगा. 

क्यों बनाया गया कानून?
दरअसल 1991 के दौरान राम मंदिर का मुद्दा काफी जोरों पर था. देश में रथयात्रा निकाली जा रही थी. राम मंदिर आंदोलन के बढ़ते प्रभाव के चलते अयोध्या के साथ ही कई और मंदिर-मस्जिद विवाद उठने लगे. इससे पहले 1984 में एक धर्म संसद के दौरान अयोध्या, मथुरा, काशी पर दावा करने की मांग की गई थी. इन्हीं मुद्दों को लेकर सरकार पर जब दवाब बढ़ने लगा तो इसे कानून को लाया गया.   

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कानून में किन-किन बातों का है प्रावधान?
कानून में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति इन धार्मिक स्थलों में किसी भी तरह का ढांचागत बदलाव नहीं कर सकता है. इसका मतलब ना तो इन्हें तोड़ा जा सकता है और ना ही नया निर्माण किया जा सकता है. कानून में यह भी लिखा है कि अगर ये सिद्ध भी हो जाए कि वर्तमान धार्मिक स्थल को इतिहास में किसी दूसरे धार्मिक स्थल को तोड़कर बनाया गया था, तो भी उसके वर्तमान स्वरूप को बदला नहीं जा सकता है. इसके अलावा धार्मिक स्थल को किसी दूरे पंथ से स्थल में भी नहीं बदला जाएगा. 

अयोध्या मंदिर को रखा गया इससे अलग
हालांकि इस कानून से अयोध्या विवाद को दूर रखा गया. इसके पीछे तर्क दिया गया कि यह मामला अंग्रेजों के समय से कोर्ट में था ऐसे में इसे इस कानून से अलग रखा जाएगा. 
 
कहां-कहां विवाद

ज्ञानवापी मस्जिद: वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर विवाद है कि इसे मंदिर को तोड़कर बनाया गया है. 

ताजमहल: आगरा में ताजमहल को लेकर दावा है कि यहां पहले शिवमंदिर था. ऐसे में तेजोमहालय के लेकर नया विवाद छिड़ा है. 

शाही ईदगाह मस्जिद: मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि के बराबर में स्थित इस मस्जिद भी मंदिर को तोड़कर बनाने का दावा किया गया है.  

कुतुबमीनार: दिल्ली में कुतुबमीनार का नाम बदलकर विष्णु स्तंभ रखने की मांग की जारी है. यहां भी हिंदू मंदिर का दावा किया जा रहा है.

अटाला मस्जिद: जौनपुर में अटला देवी के मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का दावा किया गया है. 

भोजशाला: धार में हिंदुओं के मंदिर पर मस्जिद बनाने का मामला विवाद में है. यहां नमाज पर रोक लगा पूरा परिसर हिंदुओं को सौंपने की मांग की जा रही है. 

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