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Finland और Sweden NATO में होंगे शामिल, रूस को फिर क्यों सताने लगा डर?

Explainer: रूस नहीं चाहता है कि उसके पड़ोसी देश किसी भी स्थिति में नाटो में शामिल हों. नाटो रुख रूस के खिलाफ ही रहा है.

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Finland और Sweden NATO में होंगे शामिल, रूस को फिर क्यों सताने लगा डर?

नाटो देशों की सामूहिक सैन्य ताकत से डरता है रूस. (फोटो क्रेडिट- Facebook/NATO)

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डीएनए हिंदी: यूक्रेन (Ukraine) और रूस (Russia) के बीच जारी जंग की वजह उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) है. यूक्रेन पर अटैक रूस ने सीमा विस्तार के लिए नहीं किया था बल्कि सीमा सुरक्षा के नाम पर किया था. अगर यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की (Volodymyr Zelensky) पश्चिमी देशों के करीब न जाते और नाटो पर तटस्थ रुख अख्तियार करते तो शायद यह जंग होती ही नहीं.

जब-जब रूस का कोई पड़ोसी देश नाटो के करीब जाता है रूस को अपनी सुरक्षा पर खतरा का डर सताने लगता है. यूक्रेन के अंजाम से डरे फिनलैंड और स्वीडन नाटो की सदस्यता लेने के लिए बेचैन हो गए हैं. दोनों देशों ने आधिकारिक तौर पर नाटो में शामिल होने के लिए आवेदन कर दिया है.

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NATO और रूस में टकराव की क्या है वजह?

रूस दोनों देशों को धमका चुका है कि अगर नाटो की सदस्यता इन देशों ने ली तो अंजाम ठीक नहीं होगा. रूस यह भी कह चुका है कि दोनों देशों में नाटो की सैन्य तैनाती के पैटर्न पर यह निर्भर करेगा कि रूस का व्यवहार दोनों देशों के प्रति कैसा होगा. रूस नाटो को लेकर इतना संवेदनशील है कि परमाणु युद्ध की धमकी तक दे चुका है. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर नाटो से रूस डरता क्यों है?

नाटो आर्मी

नाटो से यूक्रेन के डरने की कुछ बड़ी वजहें हैं. संक्षेप में कहें तो नाटो की सेनाएं इतनी प्रभावशाली हैं कि रूस को उन सेनाओं से डर लगता है. डर यह भी लगता है कि अगर किसी देश में रूस की दखल के बाद अगर नाटो की सेनाओं ने हमला बोल दिया तो रूस तबाह हो सकता है. आइए समझते हैं कि नाटो की ताकत क्यों रूस के लिए खतरा बन सकती है.

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क्या है नाटो का मकसद? 

नाटो अपने सदस्य देशों को सुरक्षा की गारंटी देता है. नाटो का मकसद है कि सदस्य देशों में शांति बनी रहे और उनके लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा हो. नाटो सैन्य और राजनीतिक सुरक्षा बनाए रखने का वादा करता है. नाटो अपने उद्देशिका में कहता है कि इस संगठन का उद्देश्य लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना है और सुरक्षा मुद्दों पर विवाद की दिशा में सदस्य देशों की सहायता करना है.

नाटो आर्मी.

नाटो की प्रस्तावना कहती है, 'नाटो विवादों के शांतिपूर्ण समाधान के लिए प्रतिबद्ध है. यदि राजनयिक प्रयास विफल हो जाते हैं तो नाटो संकट के समाधान के लिए नाटो सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर सकता है. ऐसे प्रयास नाटो की सामूहिक रक्षा संधि के तहत किए जाते हैं. वाशिंगटन संधि के अनुच्छेद 5 के तहत नाटो एक्शन ले सकता है.'

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30 देशों के सामूह से डरता है रूस

नाटो संगठन की हर दिन बैठक होती है. सदस्य देश सुरक्षा के मुद्दे को लेकर अलग-अलग स्तर पर बातचीत करते हैं. नाटो जब किसी फैसले पर मुहर लगाता है तो यह कुल 30 देशों का सामूहिक निर्णय होता है. युद्ध की स्थिति में अगर किसी नाटो सदस्य देश पर कोई आक्रमण करता है तो उस पर कुल 30 देश एकसाथ हमला कर सकते हैं.

क्यों सताता है रूस को डर?

साल 1949 के बाद से ही नाटो लगातार अपनी ताकतें बढ़ा रहा है. यूरोप में रूस की सीमाएं सबसे ज्यादा विवादित हैं. रूस के पास करीब 13 लाख सैनिक हैं, वहीं नाटो के पास 35 लाख. यह आंकड़े आधिकारिक हैं. पैरा मिलिट्री और दूसरे सुरक्षाबलों की गिनती इसमें नहीं है. अगर अपने हितों की रक्षा की बात कहकर रूस किसी देश पर आक्रमण करता है तो उसे कुल 30 देशों की सेनाओं से एक साथ निपटना होगा. 

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नाटो आर्मी.

यूरोप के ज्यादातर शक्तिशाली देश इसमें शामिल हैं. ऐसे में रूस अलग-थलग पड़ जाएगा. रूस का साथ देने वाला कोई भी नहीं रहेगा. ऐसे में रूस की मजबूरी है कि वह उन देशों पर दबाव बढ़ाए जो नाटो में शामिल होने वाले हैं.

रूस के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं नाटो की सेनाएं

रूस के साथ नाटो की सीमाओं का विस्तार हो रहा है. अगर फिनलैंड और स्वीडन भी शामिल हो जाते हैं इस सीमा का विस्तार होगा और बाल्टिक क्षेत्र पर भी दबाव बढ़ेगा. यही वजह है कि रूस लगातार दबाव बना रहा है कि दोनों देशों देश नाटो की सदस्यता न लें. रूस कभी नहीं चाहता है कि अमेरिका इस क्षेत्र में ताकतवर बने. रूस को अपनी सुरक्षा का खतरा सता रहा है. माना यह भी जा रहा है कि फिनलैंड और स्वीडन को जल्द सदस्यता मिल सकती है.

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