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DNA Katha Sahitya : पारिवारिक संस्कार की अहमियत बताती अर्चना सिन्हा की कहानी 'शुरुआत'

Hindi Literature: अर्चना सिन्हा की कहानियों में स्त्रीमन की परतें बड़ी बारीक तरीके से खुलती हैं. उनके कहानी संग्रह 'मत जाओ नीलकंठ' की कहानियों में भी यह गुण दिखता है. 'शुरुआत' कहानी की नायिका अपने संस्कारों के साथ दृढ़ता से खड़ी दिखती है. कहानी पढ़कर जानें कि उसके संस्कार उसके बच्चों में आए या नहीं.

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DNA Katha Sahitya : पारिवारिक संस्कार की अहमियत बताती अर्चना सिन्हा की कहानी 'शुरुआत'

AI के रचे काल्पनिक बैकग्राउंड में कथाकार अर्चना सिन्हा.

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बिहार की राजधानी पटना में रहती हैं अर्चना सिन्हा. पेशे से आयुर्वैदिक डॉक्टर हैं. निजी प्रैक्टिस करती हैं लेकिन स्वभाव से रचनाकार. बचपन से ही लिखना उन्होंने शुरू कर दिया था. शुरुआती दौर में कविताएं लिखती रहीं और सोलह वर्ष की उम्र में पहली कहानी लिखी. उनकी कहानियों की बड़ी खूबी है पात्रों और माहोल की डिटेलिंग. कई बार इसी डिटेलिंग से कथा आगे बढ़ती दिखती है.
'शुरुआत' कहानी में 'गणतंत्र दिवस' का माहौल है लेकिन इस माहौल की पृष्ठभूमि में तनाव, शिकायत और खीज की हल्की हवा चलती रहती है. लेकिन इस हवा को नजरअंदाज कर नायिका गणतंत्र दिवस के जीवंत प्रसारण में डूबकर आनंद ले रही है. राष्ट्रधुन के खत्म होते ही जब वह रसोई में जाने को हुई, उसी वक्त उन्होंने अपने घर में कुछ ऐसा देखा जो उनके मन को अथाह सुकून से भर गया. वह नजारा क्या था - यह जानें इस कहानी को पढ़कर.

शुरुआत

“ऑफिस से लौटते हुए कोई मिठाई लेते आना.”
“क्यों? तुमको आज कॉलेज नहीं जाना है क्या?”
“नहीं, आज नहीं जाऊंगी?”
“अरे! झंडा फहराने नहीं जाना है?”
“नहीं.”
“15 अगस्त को तो गई थी?”
“हां मगर आज नहीं जाऊंगी.”
“क्यों? शौक हो पूरा गया?” हल्की व्यंग्यात्मक हंसी के साथ पूछा गया. उत्तर में वह चुप रही. कलेजे में उमड़ती सांस को भी चाय की घूंट के साथ निगल गई. 
“तुम जैसा सोचती हो ना, वैसा नहीं होता. सब लोग कोरम पूरा करता है. कम्प्लेन का डर नहीं हो तो कोई जइबो नहीं करेगा.” उसके जी में आया पूछे, ‘क्या यह सत्य तुम्हारा भी है?’ लेकिन पूछा नहीं. जानती थी उनका मूड खराब हो जाएगा और वह आज के दिन ऐसा कुछ नहीं चाहती थी. आज 26 जनवरी है, गणतंत्र दिवस, आज तो सबसे बड़ा पर्व है- होली, दिवाली, दशहरा से भी बड़ा. आज वो सारा दिन खुश रहना चाहती है. कितनी अच्छी लगती है आज की सुबह, हाथ में कागज के झंडे लिए, सफेद यूनिफार्म में स्कूल की तरफ लपकते, उत्साह से लबरेज बच्चों के झुंड, लाउडस्पीकरों से आते देशभक्ति के गीत. सब कुछ जोश और ऊर्जा से भरपूर.

नई-नई नौकरी

बस कुछ ही महीने पहले की बात है, उसकी नई-नई नौकरी थी. 2 जुलाई को उसने ज्वॉइन किया था. फिर तुरंत 15 अगस्त आ गया. उस दिन 8 बजे का समय रखा गया था झंडा फहराने का. वह 7 बजे ही तैयार हो गई थी. पति ने देखा तो पूछा, “कहां जा रही हो?”
“कॉलेज, और कहां?”
“आज क्या करोगी वहां जा कर?”
“क्यों? वहां झंडा नहीं फहराया जाएगा?”
“हां तो तुम क्या करोगी उसमें?”
“अरे! सब लोग रहेंगे, मैं भी रहूंगी.”
“सब लोग कौन लोग? औरत लोग थोड़े ही रहती है उसमें?”
“औरत लोग नहीं रहती है?”
“नहीं. सिर्फ मेल लोग रहते हैं और वह भी सब नहीं होंगे. तुम्हारे प्रिंसिपल रहेंगे, आस-पास रहने वाले दो चार लेक्चरर होंगे और पिऊन वैगरह, बस और कोई फिमेल लेक्चरर थोड़े ही रहेगी.”
“तुम कैसे जानते हो कि फिमेल लेक्चरर नहीं होगी?”
“इसमें नहीं क्या जानना है? यही होता ही है. मेरे दाफ्तर में औरतें नहीं हैं क्या? इतने सालों में मैंने तो किसी को नहीं देखा.”
“तुम्हारे दफ्तर में भले ही नहीं आती होंगी, लेकिन यहां तो सभी बुद्धिजीवी वर्ग से बिलांग करने वाली महिलाएं हैं. ये लोग जरूर आती होंगी.
“आती होंगी? पूछा है तुमने किसी से?”
“इसमें पूछना क्या था?” वह जिद पर अड़ी रही.


जलपान वितरण तक रुकना उसके लिए कठिन लग रहा था. लग रहा था कब भागे, लेकिन वह समझ रही थी कि बिना डब्बा लिए चली गई तो उसके निकलते के साथ ही उसकी पीठ पर ‘बेचारी’ जुमला उछलेगा, जो उसे कतई गवारा नहीं था. 


“ठीक है जाओ. देखोगी ही.” और सचमुच उसने देख ही लिया था. वह जैसे अचम्भा का बच्चा हो गई थी वहां जा कर. यहां तक कि प्रिंसिपल साहब भी पूछ बैठे थे “आप कैसे आ गईं आज?” एक कुलीग ने हंस कर कह दिया “देश भक्त महिला हैं भाई.” उसे एकदम लगने लगा था जैसे बांस में झंडे की जगह वही लटक रही हो. जन-गण-मन के समय उसे अपना सावधान की मुद्रा में खड़ा रहना भी खल रहा था, क्योंकि वह अकेली थी जो ऐसे खड़ी थी. सभी उसकी इस मुद्रा को किंचित मुस्कान के साथ देख रहे थे और अपने संस्कारों की मारी उसे तो 52 सेकेंड तक सावधान खड़े रहना ही था. हद तो तब हो गई जब समापन के बाद मुड़ते समय प्रिंसिपल साहब का पैर झंडा-स्थल के चारों तरफ फूलों से बने भारत के नक्शे से छू गया और फूलों की स्थिति बिगड़ गई. वह एकदम से झुक पड़ी और फूलों को ठीक कर उठते समय उसका हाथ प्रणाम की मुद्रा में स्वाभाविक रूप से माथे की ओर चला गया.

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“अरे वाह! आपने तो अभी तक अपनी स्कूली शिक्षा को याद रखा हुआ है.” शर्मा जी बोल पड़े थे. पता नहीं इस वाक्य में व्यंग्य था, उपहास था या श्रद्धा थी - उसके दिमाग ने इसकी विवेचना करने से इनकार कर दिया और उसने रूखे स्वर में उत्तर दिया, “मैं अपनी इस शिक्षा पर गर्व करती हूं शर्मा जी.” उसके वाक्य के रूखेपन का आशातीत प्रभाव पड़ा था. लोगों के चेहरे पर छाई कौतुक पूर्ण मुस्कान गायब हो गई और सभी भरसक गंभीर दिखने का प्रयत्न करने लगे. शर्मा जी भी अचकचा कर, “जी हां, जी हां, होना ही चाहिए” कह कर चुप हो गए. जलपान वितरण तक रुकना उसके लिए कठिन लग रहा था. लग रहा था कब भागे, लेकिन वह समझ रही थी कि बिना डब्बा लिए चली गई तो उसके निकलते के साथ ही उसकी पीठ पर ‘बेचारी’ जुमला उछलेगा, जो उसे कतई गवारा नहीं था. ऊहापोह की स्थिति में वह थोड़ी देर बिलकुल असंबद्ध सी खड़ी रह गई थी. प्रिंसिपल साहब ने शायद उसकी स्थिति को समझा और उस अपने पास बुला लिया और नाश्ता खत्म करते-करते उससे छोटी-छोटी बातें करते रहे थे. 


उसे जसदेव सिंह जी की कभी की गई कमेंट्री याद हो आई, ‘कहते हैं ये पंछी नहीं, शहीदों की आत्माएं हैं जो स्वतंत्र भारत के मुक्त आकाश में कल्लोल कर रही हैं’- उसकी आंखें भर आईं. 52 सेकेंड समाप्त हो गए थे.


उस दिन का सारा कुछ वह आज दुहराना नहीं चाहती थी. सिर झटक कर उसने अपने-आप को सहज किया और उठ कर टीवी खोलने लगी. शहनाई वादन खत्म हो चुका था और ‘अगला प्रसारण दिल्ली से’ का कैप्सन लगा हुआ था. उसने मुड़ कर देखा, दोनों बच्चे अभी तक सो रहे थे. उसे बुरा लगा, ‘एक तो स्कूल नहीं गए दोनों, ऊपर से अभी तक सो भी रहे हैं. राष्ट्रगान शुरू होगा तो ऐसे ही पड़े रहेंगे. उसे याद आई, शुरुआती दिनों में राष्ट्रगान के समय पति का बैठे रहना उसे बहुत खलता था. एक-दो बार उसने कहा भी, एक-दो बार उन्होंने मान भी लिया लेकिन बाद में उन्होंने तर्क दिया था, ‘सम्मान मन में होता है. नहीं खड़े होने से मेंरे मन में राष्ट्रगान के लिए सम्मान नहीं है, ऐसा तो नहीं है.’ इस पर उसने भी कहा था, ‘बड़े- बुजुर्गों के लिए भी मन में सम्मान होता है लेकिन उनके पांव ना छुएं, उठ कर खड़े ना हों तो चलेगा?’ जाहिर है, ‘वो और बात है’ के सिवा और क्या उत्तर मिल सकता था. उसने बात नहीं बढ़ाई थी लेकिन कहना जरूर चाहती थी कि राष्ट्रगान के समय आपका सावधान की मुद्रा में खड़े रहना सिर्फ उसके प्रति आदर प्रदर्शित करना ही नहीं है, बल्कि यह भी प्रदर्शित करना है कि आप उसकी अस्मिता के लिए, उसकी प्रतिष्ठा के लिए, उसकी संप्रभूता के लिए कितने सजग हैं. डंडे पर लहराने वाला तीन रंगों का यह ध्वज, महज कपड़े का टुकड़ा नहीं, अपितु स्वतंत्र भारत का प्रतीक है. वह जानती थी यह सब कहना व्यर्थ है. ये बीज अब नहीं रोप जा सकते. लेकिन आज वह अपने बेटों को इतनी देर तक सोता देख कर वह एकदम खीज गई.

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“उठो.” उसने बड़े बेटे को आवाज दी. “झंडा अभिवादन कम-से-कम घर में तो देख लो.”
“ओ हो. सोने दो ना मां. फिर क्या फायदा हुआ स्कूल नहीं जाने का. वहां भी खड़े रहो, यहां भी खड़े रहो.” बेटे ने झल्लाते हुए कहा और करवट बदल कर सो गया. उस पर नाराज होती हुई वह छोटे बेटे को उठाने लगी, “उठो-उठो सोनू. उठो मेरा राजा बच्चा. देखो अभी टीवी पर कितना बड़ा झंडा दिखेगा. वो कागज वाला झंडा नहीं जिसको ले कर तुम स्कूल गए थे. सचमुच का, कपड़ा वाला झंडा. उठो-उठो, देखो.” छोटा सा बच्चा कुनमुनाया और उसका हाथ पकड़ कर फिर सो गया. वह उसे दुलारती हुई उठाती रही. इतने में टीवी अनाउंसर ने राष्ट्रपति के पहुंचने की सूचना दी. उसने सिर उठा कर देखा- राष्ट्रपति बग्घी से उतर रहे थे. अब उसकी सारी चेतना लोगों से मिल कर आगे बढ़तीं राष्ट्रपति पर केंद्रित थी. वह एकदम से बिस्तर से उतर कर खड़ी हो गई. राष्ट्रपति अब झंडा फहराएंगी. वह सावधान की मुद्रा में खड़ी हो चुकी थी. राष्ट्रपति ने रस्सी खींची और तिरंगा फूलों की पंखुरियां बिखेरता हुआ लहरा उठा. साथ ही शुरू हो गई राष्ट्रधुन और उसके साथ ही इक्कीस तोप क्रमशः गरजने लगे. टीवी कैमरा सबों पर फोकस करता हुआ तोप के हर धमाके पर सैंकड़ों की संख्या में उड़ते पक्षियों पर भी रुक रहा था. उसे जसदेव सिंह जी की कभी की गई कमेंट्री याद हो आई, ‘कहते हैं ये पंछी नहीं, शहीदों की आत्माएं हैं जो स्वतंत्र भारत के मुक्त आकाश में कल्लोल कर रही हैं’- उसकी आंखें भर आईं. 52 सेकेंड समाप्त हो गए थे. राष्ट्रगीत समाप्त हो गया था. वह आहिस्ता से आंखें पोंछ कर रसोई में जाने को मुड़ी और अचानक रुक गई. उसका बड़ा बेटा अपने निंदुआए छोटे भाई को एक हाथ से गोद में टांगे हुए दूसरे हाथ को सावधान की मुद्रा में रख टीवी में लहराते हुए झंडे को अपलक देख रहा था.

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