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प्रभात रंजन ने अनुवाद को बताया विशिष्ट कर्म, कहा- साहित्य रचकर जीविका नहीं चला सकते

अनुवाद सिर्फ इसलिए नहीं करना चाहिए कि इससे आप एक बड़े पाठक वर्ग तक पहुंच जाएंगे या इससे आपको आर्थिक लाभ होगा, बल्कि इसलिए भी करना चाहिए कि आप जब किसी भी दूसरी भाषा से अपनी भाषा में अनुवाद करते हैं तो लेखक की अपनी भाषा की सीमा का विस्तार होता है.

प्रभात रंजन ने अनुवाद को बताया विशिष्ट कर्म, कहा- साहित्य रचकर जीविका नहीं चला सकते

कोठागोई उपन्यास के लेखक प्रभात रंजन.

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डीएनए हिंदी: हिंदी साहित्य में प्रभात रंजन अब जाना-सुना नाम है. उनके लेखन का क्षेत्र बहुविध है. कविता, कहानी और उपन्यास तो उनके खाते में हैं ही, लेकिन उससे ज्यादा काम उन्होंने अनुवाद के क्षेत्र में किया है. उनकी एक बड़ी पहचान अनुवादक के रूप में है. उनकी अनूदित किताबों की संख्या 30 से ऊपर है. प्रभात रंजन के हिस्से में सिर्फ साहित्यिक मिजाज की किताबों के अनुवाद ही नहीं हैं, आर्थिक विषय पर लिखी किताबें भी उन्होंने अनूदित की हैं. इसी तरह खेल और सिनेमा जैसे विषय भी उनसे अछूते नहीं रहे. अनुवाद को लेकर उनका अब तक का अनुभव कैसा रहा है, इस पर उन्होंने खुलकर बात की.
प्रभात रंजन ने कहा कि अनुवादक के रूप में मुझे बहुत संतोष है. यह संतोष इसलिए भी है कि दूसरी भाषा की रचनाओं को अपनी भाषा के बहुत सारे पाठकों के बीच पहुंचा रहा हू्ं. हो सकता है कि मेरी कहानी उतने बड़े पाठक समाज तक न पहुंच पाए या उसे न पसंद आए, लेकिन अनुवाद की वजह से आप बहुत दूर तक पहुंच जाते हैं जिसका आपको अंदाजा नहीं होता. 
दुर्भाग्य से हमारी भाषा में अनुवाद जैसे बहुत महत्त्वपूर्ण काम को दोयम दर्जे का माना जाता है. दुनिया का हर बड़ा लेखक किसी न किसी अनुवादक का मोहताज है दुनिया की दूसरी भाषा में पहुंचने के लिए. आज अगर गीतांजलि श्री को हम गर्व के साथ अपनी भाषा की लेखिका बताते हैं तो इस गर्व के पीछ बहुत बड़ा हाथ उनके उपन्यास 'रेत समाधि' की अनुवादिका का है, जिनके अनुवाद ने उन्हें बुकर पुरस्कार से सम्मानित होने का अवसर दिया. इस अनुवाद ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचा दिया.
या मेरे सबसे प्रिय सर्वकालिक महान लेखक ग्रैब्रियल गार्सिया मार्खेज को पढ़ने के लिए मैं अनुवादक का शुक्रिया अदा करूंगा कि उसने स्पेनिश के इतने महान लेखक को हम तक पहुंचाया. हमारी भाषा के लेखकों की एक बड़ी कमी यह है कि वे अनुवाद को लेखन नहीं मान पाते. जब भी कोई मुझसे पूछता है कि क्या कर रहे और मैं कहता हूं कि अनुवाद कर रहा तो उनका अगला सवाल होता है कि वो तो ठीक है, अपना क्या लिख रहे? तो ये जो अनुवाद को पराया देखने की परंपरा है, इसने मुझे और जिद के साथ इस काम को करने के लिए प्रेरित किया. 
मार्खेज की किताबें हैं या सलमान रश्दी के उपन्यास हैं, उनका अनुवाद अगर मूल की तरह करेंगे तो उन्हें हिंदी में कोई नहीं पढ़ेगा. अंततः उसको अपनी भाषा में पठनीय बनाना पड़ता है. बहुत सारी चुनौतियों से एक अनुवादक को गुजरना पड़ता है. और उसके बाद ये सुनने को मिलता है कि यार तुम दोयम दर्जे का काम कर रहे हो या लोग कहते हैं कि बहुत पैसे कमा रहे हो, जबकि आप जानते हैं कि साहित्यिक अनुवाद में उतने पैसे नहीं है जितने का लोगों को भ्रम है. 
एक दिलचस्प बात बताऊं, हालांकि ये थोड़ी आवांतर चर्चा है. इस समय जो नेपाली भाषा है, वह बहुत मजबूत हो गई है. उसमें पाठकों की तादाद बहुत बढ़ रही है. वहां बुद्धिसागर जैसे कई बड़े लेखक हैं जिनकी किताबें लाखों की तादाद में बिकती हैं और जिनको देखने और सुनने के लिए हजारों की संख्या में लोग जुट जाते हैं. एक घटना बताता हूं आपको कि बुद्धिसागर की किताब अंग्रेजी में अनूदित हुई, लंदन से छपी. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उनका एक सेशन था और मुझे कहा गया कि बुद्धिसागर से आप बात करोगे. क्योंकि आप नेपाल से जुड़े हुए हो इस अर्थ में कि मैं नेपाल की सीमा का रहनेवाला हूं. सीतामढ़ी नेपाल बॉर्डर का एक शहर है और यहीं रहकर हमने अपना बचपन बिताया है. हमारे आधे रिश्तेदार तो नेपाल में बसे हैं. तो इसी आधार पर उन्होंने कहा कि नेपाल से सबसे करीबी परिचय तुम्हारा ही है. तुम बुद्धिसागर से बात करो. यह सुनकर मैं बहुत परेशान हुआ. क्योंकि ट्विटर पर बुद्धिसागर के लाखों लोग फॉलोवर हैं. वो एकबार बोलने निकलते हैं तो हजारों लोग उनके पीछे भागते हैं. मैं यह सोचकर बहुत डर गया कि इतना पॉपुलर लेखकर है मैं इनसे क्या बात कर पाऊंगा. बड़ा नर्वस था. तो बुद्धिसागर जब जयपुर आए तो मैं उनसे मिलने गया. मुझे देखते ही उन्होंने मेरी अनूदित किताबों की चर्चा कर डाली. कई किताबों के नाम बताए कि इन्हें पढ़ चुका हूं. फिर उन्होंने बताया कि नेपाल के लोग अंग्रेजी नहीं जानते हैं और नेपाली के अलावा जो दूसरी भाषा जानते हैं वो हिंदी है. नेपाल के लेखक, नेपाल के पाठक इसका इंतजार करते हैं कि किसी महत्त्वपूर्ण किताब का अनुवाद हिंदी में हो जाए. ताकि वो उसको पढ़ सकें.

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तो अनुवाद से आप कहां तक पहुंचते हैं इसका अंदाज आपको कई बार नहीं होता. जो लोग कहते हैं कि मैं मौलिक लेखन कर रहा हूं, मुझे लगता है कि उनकी अपनी सीमाएं होती हैं, वो अधिक काम नहीं कर सकते. और यह हिंदी का दुर्भाग्य है कि जो लोग बहुत काम कर सकते हैं, जो लोग अनुवाद भी कर सकते हैं, पत्रकारिता भी कर सकते हैं, जो दो भाषाओं में लिख भी सकते हैं, ऐसे लोगों को कभी महत्त्व नहीं दिया जाता. ऐसे लोगों को हमेशा कलम का मजदूर समझ लिया जाता है. 
साहित्य लेखन और अनुवाद के आर्थिक पक्ष को लेकर प्रभात रंजन ने कहा कि साहित्य लिख कर आप जीविका नहीं चला सकते. जो प्रकाशक किसी लेखक को उसकी किताब पर रॉयल्टी देने में आनाकानी करता है, वही प्रकाशक अनूदित किताब के लिए एडवांस में पैसे देना चाहता है और आपका काम खत्म होते ही ईमानदारी से उतनी रकम दे देता है जितनी रकम अगर आपको आपकी किताब के बिकने पर मिलने लगे तो आप स्वतंत्र लेखन करने लगेंगे.
युवा लेखक हों या वरिष्ठ, सबको अनुवाद करना चाहिए. यह अनुवाद सिर्फ इसलिए नहीं करना चाहिए कि इससे आप एक बड़े पाठक वर्ग तक पहुंच जाएंगे या इससे आपको आर्थिक लाभ होगा, बल्कि इसलिए भी करना चाहिए कि आप जब भी किसी दूसरी भाषा से अपनी भाषा में अनुवाद करते हैं तो लेखक की अपनी भाषा की सीमा का विस्तार होता है.

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